भिखारी ठाकुर: 'बिदेसिया' से भोजपुरी रंगमंच का इतिहास लिखने वाले लोकनायक

भिखारी ठाकुर, जिन्हें भोजपुरी समाज में लोकनायक और थियेटर की दुनिया में 'भोजपुरी का शेक्सपियर' कहा जाता है, बिहार के सारण जिले के एक छोटे से गाँव से निकलकर आए थे। उन्होंने 'बिदेसिया' जैसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से प्रवासी मजदूरों के दर्द, महिलाओं के जीवन, जाति और वर्ग के अन्याय और स्थानीय रीति-रिवाजों को जीवंत रूप से मंच पर प्रस्तुत किया।
उनकी नाच-तमाशा परंपरा, लौंडा नाच की कला और लोगों से जुड़ने वाले गीतों और नाटकों की शैली ने पूरे पूर्वांचल से लेकर विदेशों तक लोकनाट्य को लोकप्रिय बना दिया।

संक्षिप्त जानकारी

  • नाम: भिखारी ठाकुर
  • जन्म-मृत्यु: 18 दिसंबर 1887 - 10 जुलाई 1971
  • जन्मस्थान: कुतुबपुर (सारण/छपरा), बिहार
  • सामाजिक पृष्ठभूमि: नाई समुदाय, मेहनतकश परिवार
  • शिक्षा: औपचारिक शिक्षा कम; कैथी अक्षर, रामचरितमानस और लोककथाओं से स्वयं सीखी
  • प्रमुख भूमिकाएँ: कवि, नाटककार, गीतकार, अभिनेता, लोकगायक-नर्तक, नाट्य-निर्देशक, समाज सुधारक
  • प्रमुख रचनाएँ: बिदेसिया (1917), गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, विधवा-विलाप, गंगा-स्नान, कलजुग प्रेम, ननद-भौजाई, पुत्रबध
  • नाट्य-शैली: 'नाच'/लौंडा नाच परंपरा; गीत-संवाद-संगीत-समाजी/सूत्रधार मिश्रित रंगभाषा
  • परिवार: पत्नी: मतुना; पुत्र: शीलनाथ ठाकुर (1911)
  • मान-सम्मान/उपाधियाँ: 'भोजपुरी का शेक्सपियर'; 'राय बहादुर/राय साहब' (सरकारी सम्मान का उल्लेख)
  • सिनेमाई संबंध: फिल्म 'बिदेसिया' (1963) में विशेष उपस्थिति; गीत-पंक्ति पाठ
  • संस्था/ग्रंथ: 'भिखारी ठाकुर ग्रंथावली' (खंड 1: 1979; खंड 2: 1986; संकलन—आश्रम)
  • नाट्यमंडली के सदस्य: रामचंद्र मांझी (प्रमुख लौंडा नर्तक; पद्मश्री 2021), अन्य गायक-वादक-कलाकार
  • प्रमुख विवाद/बहस: लौंडा नाच, जाति-आधारित आलोचना, महिला-पर्दा संदर्भ; जेंडर पर चर्चा
  • कानूनी स्थिति: किसी विशिष्ट अदालती मामले का उल्लेख नहीं मिला; सामाजिक-नैतिक बहसें व्यापक रहीं

परिचय

रात के समय एक जनसभा में, मिट्टी के चबूतरे पर खड़े होकर जब 'समाजी' मंगलाचरण गाता और 'प्यारी-सुंदरी' के दुख को लय में बताता, तो दर्शक केवल मंच को नहीं देखते थे - वे अपने ही घर-आंगन की कहानियों को जीते थे। यही भिखारी ठाकुर की कला की शक्ति थी, जिसने भोजपुरी को जन-जीवन की भावनाओं और विरोध की भाषा दी। एक अनौपचारिक शिक्षार्थी, नाई समुदाय के सदस्य और 'नाच' परंपरा के नेता के रूप में, भिखारी ने 'बिदेसिया' से प्रवासन-पीड़ा, 'बेटी-बेचवा' से कुप्रथाओं की आलोचना और 'गबरघिचोर' से महिलाओं की जटिलता तक समाज की सच्चाई को मंच पर उतारा।

प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि

18 दिसंबर 1887 को कुतुबपुर दियारा (आज का सारण/छपरा) में जन्मे भिखारी ठाकुर का बचपन मुश्किलों से भरा था। उन्होंने गरीबी, मजदूरी और नाई समुदाय की सामाजिक स्थिति को करीब से देखा, जिसने उनके विचारों और अनुभवों को आकार दिया। गंगा नदी के किनारे जीवन और नदी के बदलते स्वरूप ने उनके गीतों और नाटकों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके परिवार में पिता दलसिंगार ठाकुर (नाई), माता शिवकली देवी और छोटे भाई बहोर ठाकुर थे। उनका विवाह कम उम्र में मतुना से हुआ था और 1911 में उनके पुत्र शीलनाथ का जन्म हुआ।

शिक्षा और शुरुआती प्रभाव

भिखारी ठाकुर को औपचारिक शिक्षा ज्यादा नहीं मिल पाई। उन्होंने कैथी लिपि, रामचरितमानस और लोक परंपराओं से खुद ही ज्ञान प्राप्त किया। यह ज्ञान उनके 'समाजी/सूत्रधार' और 'मंगलाचरण' के मंच पर प्रदर्शन में दिखाई देता है। जीवन यापन के लिए खड़गपुर, पुरी और कलकत्ता जाने के दौरान उन्होंने सिनेमा, रास-लीला/रामलीला और 'नाच-हाल' के अनुभवों से प्रेरणा ली। इसके बाद, उन्होंने गाँव में रामलीला और अपनी नाट्य-मंडली की स्थापना की।

कैरियर की शुरुआत

ऊँची जातियों के विरोध के बावजूद, भिखारी ने छोटे दल के साथ रामलीला से शुरुआत की। जल्द ही उन्होंने खुद लिखे और निर्देशित नाटकों का मंचन शुरू किया, जिनमें गीत, संवाद, हाव-भाव और सामाजिक व्यंग्य शामिल थे। उनकी पहली रचना 'बिरहा बहार' थी। इसके बाद 1917 में उन्होंने 'बिदेसिया' लिखी, जो प्रवासी मजदूरों की पीड़ा, महिलाओं के वियोग और सामाजिक विडंबनाओं की सच्ची कहानी बनकर लोगों के दिलों में बस गई। 1938 से 1962 के बीच हावड़ा (दूधनाथ प्रेस) और वाराणसी (कचौड़ी गली) के छापाखानों से उनकी लगभग तीन दर्जन पुस्तिकाएँ/पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

प्रमुख उपलब्धियाँ और प्रभाव

भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी रंगमंच परंपरा में 'नाच' और लौंडा-नाच को एक समावेशी लोक शैली दी। इसमें समाजी/सूत्रधार, मंगलाचरण, कोरस जैसी संरचना और 'विदूषक' जैसे 'लबार' की उपस्थिति ने शास्त्रीय रंगधारा से लोक-शैली को जोड़ा। 'बिदेसिया', 'बेटी-बेचवा', 'गंगा-स्नान', 'विधवा-विलाप', 'भाई-बिरोध' और 'गबरघिचोर' में महिलाओं की स्थिति, प्रवासन, असमान विवाह, अंधविश्वास और परिवार टूटने जैसे मुद्दों को मंच पर गीतों के माध्यम से उठाया गया, जिससे लोगों में इन विषयों पर चर्चा शुरू हुई। 'गबरघिचोर' जैसी रचनाओं में महिलाओं के साहसपूर्ण प्रदर्शन और 'बेटी-बेचवा' में कुप्रथाओं पर किए गए कटाक्ष ने दर्शकों के विचारों को बदला, जिसके परिणामस्वरूप कुछ लोगों ने दहेज लेने से इनकार कर दिया और शपथ ली कि वे ऐसा नहीं करेंगे।

महत्वपूर्ण मोड़/निर्णय

  • 'बिदेसिया' (1917): भिखारी लगभग 30 वर्ष के थे, जब उन्होंने प्रवासन-वेदना पर यह महाकाव्य लिखा। यहीं से 'बिदेसिया-छंद' और 'बिदेसिया-शैली' की पहचान बनी।
  • 'भिखारी पुस्तिका सूची' और 'भिखारी शंका समाधान': पायरेटेड पुस्तिकाओं और गलत दावों के विरोध में उन्होंने अपनी कृतियों की सूची और स्पष्टीकरण जारी किए। यह उनके अधिकारों और अभिलेखीय सोच का प्रतीक है।
  • 1963: भोजपुरी फिल्म 'बिदेसिया' में अपनी पंक्तियों का पाठ किया, जिससे रंगमंच और सिनेमा के बीच एक पुल बना।
  • 'ग्रंथावली' प्रकाशन (1979, 1986): उनकी रचनाओं का संस्थागत संकलन किया गया, जिससे उनकी विरासत को संरक्षित करने की पहल हुई।

विवाद, आलोचना और सामाजिक बहस

भिखारी ठाकुर को उच्च जाति के लोगों की आलोचना और लौंडा-नाच (पुरुष कलाकारों द्वारा महिला पात्रों का अभिनय) पर सामाजिक और नैतिक आपत्तियों का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने पर्दा प्रथा और महिलाओं की मंच पर अनुपस्थिति के बीच इस परंपरा को मंच की सुंदरता और नाट्य आवश्यकता के रूप में बनाए रखा। आज भी जेंडर, जाति और 'लौंडा' शब्द/भूमिका की राजनीति पर अध्ययन जारी हैं। 'बेटी-बेचवा' जैसी कृतियों को दहेज/असमान विवाह/मानव तस्करी जैसी कुप्रथाओं पर प्रभावी हस्तक्षेप माना गया है। हालाँकि किसी विशिष्ट अदालती मामले का कोई ठोस दस्तावेज नहीं है, लेकिन सार्वजनिक बहसें और सामाजिक विरोध उनकी कला यात्रा का हिस्सा रहे।

व्यक्तित्व, कार्यशैली और सार्वजनिक धारणा

भिखारी ठाकुर की कार्यशैली में लोक-जीवन के सूक्ष्म चित्रण, महिलाओं के दृष्टिकोण की करुणा, हास्य और शास्त्रीय रंगसंरचना के लोक रूपांतरण का मिश्रण था। दर्शक समुदाय की भागीदारी उनकी रचनाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी। 'समाजी/सूत्रधार' से कथा-भूमिका, 'मंगलाचरण' से सांस्कृतिक कथा और 'लबार' से हास्य-विदूषक की परंपरा ने उनके मंच को ज्ञान और मनोरंजन का जीवंत केंद्र बना दिया। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि भीड़ को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता था। इसी लोकप्रियता के कारण उनकी रचनाओं की पायरेसी भी होने लगी।

विरासत और आने वाला प्रभाव

भोजपुरी, अवधी, मगही क्षेत्र से लेकर विदेशों (फिजी, सूरीनाम, मॉरीशस) तक उनके गीत-नाटक गूंजते रहे। 'बिदेसिया' शैली ने अन्य भाषाओं के नाटकों को भी प्रभावित किया। रामचंद्र मांझी जैसे उनके शिष्यों/सहयोगियों को राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली (SNA 2017; पद्मश्री 2021), जिससे उनकी नाच-परंपरा को नई पीढ़ी तक पहुँचाने में मदद मिली। आज 'भिखारी ठाकुर' को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने की मांग उठ रही है - यह लोगों के दिलों में उनके स्थायी प्रभाव का प्रमाण है।

कालानुक्रमिक टाइमलाइन

  • 18-12-1887: जन्म: कुतुबपुर दियारा (सारण/छपरा), बिहार; नाई समुदाय में जन्म
  • किशोरावस्था: विवाह: मतुना से; स्व-अध्ययन—कैथी/रामचरितमानस/लोक-गान
  • 1911: पुत्र शीलनाथ का जन्म
  • 1914: अकाल/कठिनाई; रोजगार के लिए खड़गपुर–पुरी–कलकत्ता प्रवास; रंग/सिनेमा का प्रभाव
  • 1915: गाँव में लौटकर रामलीला/नाच-मंडली का गठन
  • 1917: 'बिदेसिया' की रचना/मंचन; बिदेसिया-छंद/शैली की स्थापना
  • 1938: प्रकाशन-युग की शुरुआत (हावड़ा–वाराणसी प्रेस)
  • 1944: 'राय बहादुर/राय साहब' कहे जाने का उल्लेख; ताम्र-फलकीय सम्मान का सन्दर्भ
  • 1946: हैजा महामारी में पत्नी का निधन (दौरे पर रहते)
  • 1963: भोजपुरी फिल्म 'बिदेसिया'; भिखारी की विशेष उपस्थिति/पंक्ति-पाठ
  • 10-07-1971: निधन
  • 1979: ग्रंथावली—खंड 1 (पाँच नाटक)
  • 1986: ग्रंथावली—खंड 2 (पाँच नाटक)
  • 2017: रामचंद्र मांझी—संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
  • 2021: रामचंद्र मांझी—पद्मश्री (कला)
  • 2024–25 संदर्भ: 'The Legacy of Bhikhari Thakur'—कल्याण/संकलन पर चर्चाएँ; स्मृति-कार्यक्रम/मांगें

उद्धरण

“डगरिया जोहत ना, बीतत बाटे आठ पहरिया... एकऊ ना भेजवलऽ खत...” — 'बिदेसिया' 
“पिया मोर गइलन परदेस, ए बटोही भइया...” — 'बिदेसिया' 
“चढ़ल जवानी जोर, पियऊ हो गइलन कठोर...” — 'बिदेसिया' 
“कहत ‘भिखारी’, भारी जारी जनावत...” — 'बिदेसिया' 
“ए सामीजी, खतवा में पातावा पेठइतऽ...” — 'बिदेसिया' 
“कहत ‘भिखारी’ नाई, प्यारी के चरित गाइ...” — 'बिदेसिया' 
“बिरहा/पूर्वी/जंतसारी/सोरठी...” 
“पिया निपटे नादानवाँ ए सजनी...” — 'बिदेसिया'

प्रमुख आँकड़े

  • कृतियाँ (मुद्रित): लगभग तीन दर्जन पुस्तिकाएँ/पुस्तकें (1938–1962 के बीच प्रकाशन)
  • नाटक-कोरपस (ग्रंथावली): खंड 1 (1979), खंड 2 (1986), अन्य गीत/एकांकी/मोनोलॉग (खंड 3 संदर्भ)
  • शैली-घटक: समाजी/सूत्रधार, मंगलाचरण, 'लबार' (विदूषक), बिरहा–पूर्वी–कजरी–फगुआ–चैता आदि
  • रंग-प्रसार: बिहार, यूपी, झारखंड, बंगाल से असम (डिब्रूगढ़) तक दलबंदी प्रदर्शन
  • सिनेमाई उपस्थिति: 'बिदेसिया' (1963) में विशेष पाठ/उपस्थिति
  • परंपरा-संरक्षण: शिष्य/सहकर्मी रामचंद्र मांझी—SNA (2017), पद्मश्री (2021)

आलोचनात्मक निष्कर्ष: चर्चा के बिंदु और शोध-गैप

  • 'लौंडा-नाच' में महिलाओं का प्रतिनिधित्व: भिखारी की परंपरा को आज के समय में कैसे समझा जाए?
  • 'गबरघिचोर' में महिलाओं का साहस: लोक-न्याय और पितृसत्तात्मक मूल्यों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण की आवश्यकता है।
  • भिखारी का पायरेसी के खिलाफ संघर्ष: लोक साहित्य के कॉपीराइट और अभिलेख मॉडल के लिए क्या सबक हैं?
  • 'बिदेसिया' शैली का प्रभाव: 'बिदेसिया' का दूसरी भाषाओं और प्रवासी समुदायों में कैसा प्रभाव रहा?

चर्चा के लिए प्रश्न

  1. 'लौंडा-नाच' की जेंडर-राजनीति को आज के मंच पर कैसे प्रस्तुत किया जाना चाहिए?
  2. 'बिदेसिया' में प्रवासी मजदूरों की आर्थिक स्थिति को कैसे दर्शाया गया है?
  3. 'गबरघिचोर' की नैतिक दुविधाएँ आज किस पक्ष में खड़ी दिखती हैं?
  4. पायरेसी के विरोध में भिखारी के अनुभव से क्या सीख मिलती है?
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