विद्यानिवास मिश्र का जीवन परिचय

पंडित विद्यानिवास मिश्र, भारत के बहुत बड़े साहित्यकार और भाषा के जानकार थे। उन्होंने ललित निबंधों, भाषा-विज्ञान, संस्कृति पर अपने विचारों और संपादन के माध्यम से हिंदी को आम लोगों की ज़िंदगी और पुरानी परंपराओं से जोड़ा। उनके इस खास योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण और मूर्ति देवी सम्मान से नवाजा गया था। 14 फरवरी, 2005 को एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। तब तक वे विश्वविद्यालय में पढ़ाने से लेकर नवभारत टाइम्स के मुख्य संपादक और राज्यसभा के सदस्य जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहकर हिंदी समाज को सही रास्ता दिखाते रहे।

संक्षेप में

पंडित विद्यानिवास मिश्र हिंदी और संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान थे। वे ललित निबंध लिखने में माहिर थे और एक अच्छे संपादक भी थे। उन्होंने पुरानी और नई सोच को मिलाकर हिंदी की सांस्कृतिक समझ को बढ़ाया। उनके लेखन में लोक-संस्कृति (आम लोगों की संस्कृति), भाषा पर विश्वास और शास्त्रों का ज्ञान दिखता है। इसी वजह से उन्हें सरकारी और साहित्यिक संस्थाओं ने बहुत सम्मान दिया।

जानकारी

  • नाम: पंडित विद्यानिवास मिश्र (Vidya Niwas Mishra)
  • जन्म और मृत्यु: जन्म: कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 14 जनवरी को हुआ था, तो कुछ लोग 28 जनवरी, 1926 को बताते हैं। उनका जन्म गोरखपुर के पकड़डीहा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। मृत्यु: 14 फरवरी, 2005 को एक सड़क दुर्घटना में।
  • जन्मस्थान: पकड़डीहा, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
  • शिक्षा: उन्होंने प्रयाग/इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. किया (1945); और गोरखपुर विश्वविद्यालय से पाणिनीय व्याकरण में पी. एच. डी. की (1960–61)।
  • प्रमुख पद: वे काशी विद्यापीठ और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उन्होंने के. एम. मुंशी हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विद्यापीठ/केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक के रूप में भी काम किया (1977–86)। वे नवभारत टाइम्स के मुख्य संपादक भी रहे; और राज्यसभा के सदस्य भी थे (2003–2005)। उन्होंने कैलिफ़ोर्निया और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर के तौर पर भी पढ़ाया।
  • मुख्य रचनाएँ: उनकी कुछ खास रचनाएँ हैं: छितवन की छाँह; कदम की फूली डाल; आँगन का पंछी और बनजारा मन; तुम चन्दन हम पानी; मेरे राम का मुकुट भीग रहा है; राधा माधव रंग रँगी; हिंदी और हम; फागुन दुइ रे दिना (आदि)।
  • मुख्य पुरस्कार: उन्हें पद्मश्री (1988), पद्मभूषण (1999), मूर्ति देवी पुरस्कार (1989), शंकर सम्मान (के. के. बिड़ला फाउंडेशन) से सम्मानित किया गया था।
  • परिवार: उनके परिवार के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। उनके विद्वान होने और संस्थाओं में काम करने पर ज़्यादा ध्यान दिया गया है।
  • संस्थाएँ: वे हिंदी साहित्य सम्मेलन से जुड़े रहे (राहुल सांकृत्यायन के मार्गदर्शन में कोश-कार्य किया), साहित्य अकादेमी से जुड़े रहे, ‘साहित्य अमृत’ के संरक्षक रहे, और एन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज़्म परियोजना से भी जुड़े थे।
  • राजनीति: वे राज्यसभा के सदस्य थे (27 अगस्त 2003–14 फरवरी 2005)।
  • विवाद: उनके जीवन में कोई बड़ा कानूनी मामला सामने नहीं आया। 1990 के दशक में हिंदी पत्रकारिता को लेकर हुई बहस में उनकी राय काफी चर्चित रही थी।
  • जानकारी: यहाँ पर उनके जीवित होने की बात कही गई है, जबकि पंडित विद्यानिवास मिश्र जी की मृत्यु 14 फरवरी, 2005 को हो गई थी।

मुख्य बातें

पंडित विद्यानिवास मिश्र गोरखपुर की मिट्टी और संस्कृत की परंपरा से जुड़े थे। उन्होंने जिस तरह से ललित गद्य लिखा, उसमें गाँव की खुशबू, शास्त्रीय ज्ञान और संस्कृति की समझ एक साथ दिखती है। यही उनकी रचनाओं की पहचान है। वे विश्वविद्यालयों में अध्यापक और कुलपति रहे, नवभारत टाइम्स के मुख्य संपादक बने और फिर राज्यसभा के सदस्य भी बने। उन्होंने हमेशा भाषा, संस्कृति और लोगों के बारे में खुलकर बात की।

शुरुआती जीवन

पंडित विद्यानिवास मिश्र का जन्म गोरखपुर जिले के पकड़डीहा गाँव में 1926 में हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 14 जनवरी को हुआ था, तो कुछ 28 जनवरी को। इससे पता चलता है कि उनकी जन्मतिथि को लेकर अलग-अलग राय है। गाँव और पूर्वांचल की बोलियों से उन्हें भाषा की गहरी समझ मिली, जिसे उन्होंने बाद में अपने निबंधों में शास्त्रीय ज्ञान के साथ जोड़ा। उन्होंने उत्तर प्रदेश में शुरुआती शिक्षा ली और वाराणसी में उन्हें संस्कृत की परंपरा के बारे में जानने को मिला।

शिक्षा

उन्होंने 1945 में प्रयाग/इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. किया और हिंदी साहित्य सम्मेलन में राहुल सांकृत्यायन के मार्गदर्शन में कोश-कार्य से जुड़े। इससे उनकी शोध करने की क्षमता और भाषा पर पकड़ मजबूत हुई। 1960–61 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से ‘पाणिनीय व्याकरण की विश्लेषण पद्धति’ पर डॉक्टरेट करके उन्होंने पुरानी और नई सोच को मिलाकर भाषा-विज्ञान का एक पुल बनाया। इस दौरान उन्होंने विंध्य प्रदेश/उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग और आकाशवाणी के साथ भी काम किया, जिससे उन्हें पत्रकारिता का अनुभव मिला।

करियर

लगभग 1957 में वे विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे और गोरखपुर विश्वविद्यालय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय और आगरा विश्वविद्यालय में संस्कृत और भाषा-विज्ञान पढ़ाया। इससे उनकी पहचान एक विद्वान के रूप में होने लगी। 1967–68 में वे वाशिंगटन विश्वविद्यालय में और बाद में कैलिफ़ोर्निया में अतिथि प्रोफेसर रहे। वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने भारतीय संस्थानों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ निभाईं। 1977–86 में आगरा स्थित के. एम. मुंशी हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विद्यापीठ/केंद्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक के रूप में उन्होंने प्रशासनिक और शैक्षणिक कार्यों में अपनी अलग पहचान बनाई।

उपलब्धियाँ

वे काशी विद्यापीठ और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इससे पता चलता है कि हिंदी और संस्कृत की दुनिया में उनका कितना बड़ा योगदान था। नवभारत टाइम्स के मुख्य संपादक के रूप में उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को सही दिशा दी। उन्होंने भाषा की शुद्धता और लोगों से जुड़े मुद्दों पर जोर दिया। 1993 में उनके कार्यकाल की एक तस्वीर से भी इसकी पुष्टि होती है। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री (1988), पद्मभूषण (1999) और भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार (1989) जैसे सम्मानों से सम्मानित किया गया।

महत्वपूर्ण फैसले

  • हिंदी साहित्य सम्मेलन में राहुल सांकृत्यायन के साथ कोश-कार्य से उनकी शोध और रचनात्मकता की शुरुआत हुई।
  • 1977–86 में केंद्रीय हिन्दी संस्थान/मुंशी विद्यापीठ के निदेशक के रूप में उन्होंने भाषा-शिक्षण और नीति-निर्माण के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया।
  • काशी विद्यापीठ और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उन्होंने शिक्षा में पुरानी और नई सोच को संतुलित किया।
  • नवभारत टाइम्स के संपादक (1990 का दशक) के रूप में उन्होंने भाषा की शुद्धता, सांस्कृतिक समझ और संपादकीय जिम्मेदारी पर जोर दिया।
  • राज्यसभा के सदस्य (27 अगस्त 2003) के रूप में उन्होंने साहित्य और शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर संसद में अपनी बात रखी।

विवाद

उनके जीवन में कोई बड़ा कानूनी मामला सामने नहीं आया। उनके जीवन के बारे में जो कुछ भी लिखा गया है, उसमें साहित्य, शिक्षा और संस्कृति पर ही ध्यान दिया गया है। 1990 के दशक में हिंदी मीडिया में जो बदलाव आए, जैसे कि व्यावसायिक दबाव और भाषा का स्तर, उस पर उन्होंने अपनी राय रखी थी। आज भी उनकी बातों को याद किया जाता है। उन्होंने पत्रकारिता और पाठकों के हितों के बीच संतुलन बनाने की बात कही थी।

व्यक्तित्व

मिश्र जी का स्वभाव ऐसा था कि वे लोगों से प्यार करते थे, अनुशासन का पालन करते थे और भाषा के प्रति संवेदनशील थे। इसी वजह से उनके निबंधों में ज्ञान और आनंद का मिश्रण देखने को मिलता है। उन्हें हजारीप्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय जैसे लेखकों के समान माना जाता है, लेकिन कुछ लोग उन्हें शैली और लेखन की मात्रा के मामले में उनसे बेहतर मानते हैं। एक संपादक के रूप में उन्होंने भाषा की शुद्धता, लोगों की राय और सांस्कृतिक मुद्दों को ‘मीडिया की भूमिका’ से जोड़ा।

आज भी

उनकी सबसे बड़ी विरासत उनके ललित निबंध हैं, जिनमें गाँव का जीवन, मौसम, कहानियाँ और भाषा का ज्ञान एक साथ मिलते हैं। ‘एन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज़्म’ और ‘साहित्य अमृत’ जैसी परियोजनाओं से जुड़कर उन्होंने हिंदी और संस्कृत के ज्ञान को बढ़ावा दिया। 14 फरवरी, 2005 को एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन हिंदी में आज भी उनकी बातें नीति, पाठ्यक्रम और संपादन के बारे में याद की जाती हैं।

महत्वपूर्ण  तारीखें 

  • 1926 (14/28 जनवरी): गोरखपुर के पकड़डीहा में जन्म। जन्मतिथि को लेकर अलग-अलग राय है।
  • 1945: प्रयाग/इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए.
  • 1956: ललित निबंध लिखना शुरू किया।
  • 1957: विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे; गोरखपुर/वाराणसी/आगरा में पढ़ाया।
  • 1960–61: पाणिनीय व्याकरण पर पी. एच. डी., गोरखपुर विश्वविद्यालय।
  • 1967–68: वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर।
  • 1976: पहला निबंध-संग्रह ‘छितवन की छाँह’ प्रकाशित।
  • 1977–86: निदेशक, के. एम. मुंशी हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विद्यापीठ/केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा।
  • 1980 के दशक: काशी विद्यापीठ और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति।
  • 1988: पद्मश्री (साहित्य एवं शिक्षा)।
  • 1989: मूर्ति देवी पुरस्कार (भारतीय ज्ञानपीठ)।
  • 1990 का दशक: नवभारत टाइम्स के मुख्य संपादक; भाषा और संस्कृति पर प्रभाव।
  • 1999: पद्मभूषण (साहित्य एवं शिक्षा)।
  • 27 अगस्त 2003: राज्यसभा के सदस्य बने।
  • 14 फरवरी 2005: देवरिया से वाराणसी जाते समय सड़क दुर्घटना में निधन।

विचार

“अगर हिंदी में आंचलिक बोलियों के शब्दों को शामिल किया जाए तो संस्कृतनिष्ठ भाषा से बचा जा सकता है।” — विद्यानिवास मिश्र। 
“मीडिया का काम नायकों की प्रशंसा करना है, लेकिन नायक बनाना नहीं।” 
“शिव हमारी कहानियों में एक बड़े यायावर हैं... वे अहंकार की भीख मांग रहे हैं।” — ‘फागुन दुइ रे दिना’ से। 
“छितवन की छांह मेरे मस्ती भरे दिनों की देन है... ‘आंगन का पंछी’ बनकर चहका, वहीं उसका ‘बंजारा मन’ घूमने के लिए बेचैन रहता था।” 
“(अनुमानित) हिंदी तभी आगे बढ़ती है जब वह लोगों से जुड़ी रहे।” 
“(अनुमानित) पुरानी और नई सोच का संतुलन ही भारतीय भाषाओं की पहचान है।”

आँकड़े

  • प्रकाशित रचनाएँ: 70+ (निबंध, आलोचना, भाषा-चिंतन, संपादन सहित)
  • कुल रचनाएँ: 100+।
  • मुख्य पद: 2 कुलपति, 1 निदेशक (1977–86); 1 राष्ट्रीय दैनिक के मुख्य संपादक; 1 राज्यसभा सदस्यता।
  • सम्मान: पद्मश्री (1988), मूर्ति देवी (1989), पद्मभूषण (1999)

निष्कर्ष

  1. उनकी जन्मतिथि 14 और 28 जनवरी, 1926 में से कौन सी सही है, यह पता लगाना ज़रूरी है।
  2. नवभारत टाइम्स के संपादक के रूप में उन्होंने कब तक काम किया और उनकी नीतियाँ क्या थीं, यह जानना भी ज़रूरी है।
  3. ‘एन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज़्म’ परियोजना में उनका क्या योगदान था, यह भी पता लगाना ज़रूरी है।
  4. राज्यसभा में उन्होंने क्या भाषण दिए और किन समितियों में भाग लिया, यह भी जानना ज़रूरी है।

चर्चा के लिए प्रश्न

  1. क्या हिंदी में आंचलिक शब्दों को शामिल करना सही है?
  2. आज के समय में मिश्र जी की पत्रकारिता की बातें कितनी सही हैं?
  3. क्या ललित निबंध को फिर से पढ़ाया जाना चाहिए?

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