मैला आँचल के रचयिता फणीश्वरनाथ रेणु: आंचलिकता के लोक-इतिहासकार और हिंदी उपन्यास की नई धारा
फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी साहित्य के एक ऐसे सितारे थे, जिन्होंने अपनी लेखनी से आंचलिक उपन्यासों को एक नई पहचान दी। 1921 में बिहार के अररिया जिले (तब पूर्णिया) के औराही हिंगना गाँव में जन्मे, रेणु ने ग्रामीण जीवन की धड़कनों को अपनी रचनाओं में जीवंत कर दिया। उन्होंने 1954 में 'मैला आँचल' उपन्यास लिखकर हिंदी साहित्य में क्रांति ला दी, जिससे कथा-रचना और भाषा-शैली दोनों में एक नया युग शुरू हुआ।
एक नज़र में
- जन्म/मृत्यु: 4 मार्च 1921 - 11 अप्रैल 1977
- जन्मस्थान: औराही हिंगना, फारबिसगंज के पास, अररिया (तब पूर्णिया), बिहार
- शिक्षा: शुरुआती पढ़ाई अररिया-फारबिसगंज में, मैट्रिक: विराटनगर आदर्श विद्यालय, नेपाल; इंटरमीडिएट: काशी हिंदू विश्वविद्यालय, 1942
- मुख्य योगदान: हिंदी कथा-साहित्य में आंचलिक उपन्यास की शुरुआत करने वाले
- प्रमुख रचनाएँ: मैला आँचल (1954), परती परिकथा (1957), जुलूस, पंचलाइट (कहानी), मारे गये गुलफाम (जिस पर फिल्म तीसरी कसम बनी)
- फिल्में: मारे गये गुलफाम पर तीसरी कसम (1966), संवाद-लेखन में योगदान; पंचलाइट पर टीवी/फिल्म रूपांतरण
- पुरस्कार: पद्मश्री (1970); बाद में वापस कर दिया (1974/1977)
- परिवार: पिता: शीलानाथ मंडल; पत्नी: लतिका (विवाह 1951); परिवार के सामाजिक-राजनीतिक संबंध
- राजनीति/आंदोलन: भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में भाग लिया; 1950 की नेपाली लोकतांत्रिक क्रांति में सक्रिय; 1974 के बिहार छात्र-आंदोलन/जेपी आंदोलन से जुड़े
- विवाद: पद्मश्री वापस करने का फैसला; तारीख को लेकर अलग-अलग मत
गाँव की गलियों से साहित्य तक: रेणु का सफर
रेणु ने गाँव की चौपाल, कोसी नदी के किनारे, वहाँ की भाषा और लोगों के रिश्तों को अपनी कहानियों में ऐसे उतारा कि हिंदी उपन्यास को एक नया नज़रिया मिल गया। 'मैला आँचल' इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उनके लिए साहित्य सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि एक पूरे इलाके की संस्कृति को दर्शाता था। उनकी रचनाओं में किसान, मजदूर और 'डागदर बाबू' (डॉक्टर) जैसे किरदार आज़ादी के बाद गाँव में हो रहे बदलाव और संघर्षों की कहानी कहते हैं।
बचपन और पारिवारिक माहौल
रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले के औराही हिंगना गाँव में हुआ था। उनका परिवार जमींदार था, इसलिए उन्हें शिक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा मिली हुई थी, जबकि आसपास के लोग अभावों और मुश्किलों से जूझ रहे थे। उनके पिता, शीलानाथ मंडल, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय थे। घर में विचारों का खुला माहौल था और कला-संस्कृति में रुचि रखने वाले लोग आते-जाते थे, जिससे रेणु की सोच और भावनाओं को सही दिशा मिली। अररिया-फारबिसगंज का इलाका कई भाषाएँ बोलने वाले और अलग-अलग जाति के लोगों का घर था। नेपाल की सीमा से लगे होने के कारण यहाँ की संस्कृति में भी विविधता थी, जिसने रेणु के लेखन को एक नई पहचान दी।
शिक्षा और शुरुआती प्रभाव
रेणु ने शुरुआती पढ़ाई अररिया और फारबिसगंज में की। इसके बाद उन्होंने नेपाल के विराटनगर आदर्श विद्यालय से मैट्रिक पास किया। यहीं पर उनका कोईराला परिवार से गहरा रिश्ता बना। 1942 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट करने के बाद, वे भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए। इसी दौरान वे समाजवादी और लोकतांत्रिक विचारों के करीब आए, जिससे उन्हें साहित्य और समाज सेवा में सक्रिय रहने की प्रेरणा मिली। 1950 में उन्होंने नेपाली लोकतांत्रिक क्रांति में भी हिस्सा लिया, जिससे उन्हें सीमा पार के आंदोलनों का अनुभव हुआ। उन्होंने रेडियो, प्रचार और संगठन में भी मदद की।
साहित्यिक जीवन की शुरुआत
रेणु ने 1954 में 'मैला आँचल' उपन्यास लिखकर हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बना ली। इस उपन्यास ने आंचलिक उपन्यासों को एक नई पहचान और विचारधारा दी। 'मैला आँचल' उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े इलाके का सजीव चित्रण है। इसमें स्थानीय भाषाएँ, त्योहार, मान्यताएँ और सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्ते एक साथ मिलकर कहानी को आगे बढ़ाते हैं। 1957 में 'परती परिकथा' आई, जिसमें गाँव को राष्ट्रीय राजनीति और योजनाओं के एक छोटे रूप में दिखाया गया। इस उपन्यास ने 'मैला आँचल' में उठाए गए सत्ता और समाज के सवालों को और भी गहराई से उठाया।
प्रमुख रचनाएँ और उनका प्रभाव
- 'मैला आँचल' को प्रेमचंद के 'गोदान' के बाद हिंदी का सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। इसने कहानी कहने के तरीके, भाषा (स्थानीय बोलियाँ) और सामाजिक सच्चाई को मिलाकर एक नया मापदंड स्थापित किया।
- रेणु को आंचलिकता को साहित्य में महत्वपूर्ण बनाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने स्थानीय विषयों को राष्ट्रीय कहानियों में जगह दी।
- उनकी कहानी मारे गये गुलफाम पर बनी फिल्म 'तीसरी कसम' (1966) और पंचलाइट के रूपांतरणों ने ग्रामीण जीवन और भाषा को आम लोगों तक पहुँचाया। रेणु ने इन फिल्मों के संवाद लिखने में भी योगदान दिया।
- वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन, 1950 की नेपाली क्रांति और 1974 के बिहार छात्र आंदोलन में भी सक्रिय रहे।
जीवन के महत्वपूर्ण मोड़
- 1954: 'मैला आँचल' का प्रकाशन - रेणु का उदय और आंचलिक उपन्यास की नई शुरुआत।
- 1957: 'परती परिकथा' - गाँव और सत्ता की राजनीति का चित्रण।
- 1966: 'तीसरी कसम' - कहानी का सिनेमा में रूपांतरण।
- 1970: पद्मश्री सम्मान - लोक-जीवन की कहानियों को राष्ट्रीय पहचान।
- 1974–77: पुरस्कार वापस करने का फैसला - राजनीतिक विरोध का तरीका।
विवाद और आलोचना
रेणु के जीवन में सबसे बड़ा विवाद पद्मश्री वापस करने की तारीख और उसके राजनीतिक कारण को लेकर है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने 1974 में गांधी मैदान में यह पुरस्कार वापस किया था, जबकि कुछ का मानना है कि उन्होंने 1977 में आपातकाल के दौरान ऐसा किया था।
व्यक्तित्व और लेखन शैली
रेणु का लेखन गाँव के जीवन के प्रति प्रेम और संवेदनशीलता से भरा था। वे स्थानीय बोलियों, कलाओं और रिश्तों को अपनी कहानियों में सहजता से शामिल करते थे। उनकी रचनाओं में राजनीति, संस्कृति और समाज का मिश्रण दिखाई देता है, जिसे आलोचक आंचलिकता का आधुनिक दस्तावेज मानते हैं। आंदोलनों में भाग लेने और पुरस्कार वापस करने जैसे कदमों ने उन्हें एक नैतिक व्यक्ति के रूप में भी स्थापित किया।
विरासत
'मैला आँचल' लंबे समय से हिंदी के पाठ्यक्रमों में शामिल है और यह आंचलिक उपन्यासों का एक आदर्श उदाहरण है।
अररिया, पूर्णिया और मिथिला के इलाके का उनका चित्रण इतिहास, समाजशास्त्र और संस्कृति के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है।
उनकी जन्म शताब्दी (2021) के अवसर पर उनके गाँव औराही हिंगना को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की बात उठी, जो उनके साहित्य की आज भी प्रासंगिकता को दर्शाता है।
कालक्रम
- 1921: 4 मार्च को औराही हिंगना, अररिया (तब पूर्णिया), बिहार में जन्म।
- 1930s: अररिया-फारबिसगंज में शुरुआती शिक्षा।
- 1942: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट, भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया।
- 1950: नेपाली लोकतांत्रिक क्रांति में सक्रिय।
- 1954: 'मैला आँचल' का प्रकाशन।
- 1957: 'परती परिकथा' का प्रकाशन।
- 1966: 'तीसरी कसम' फिल्म।
- 1970: पद्मश्री से सम्मानित।
- 1974: बिहार छात्र आंदोलन के दौरान पद्मश्री वापस करने की घोषणा।
- 1977: 11 अप्रैल को निधन।
- 1990s: 'मैला आँचल' का टीवी रूपांतरण।
- 2021: जन्म शताब्दी पर गाँव को पर्यटन स्थल बनाने की मांग।
प्रमुख कथन
पद्मश्री को 'पापश्री' कहकर लौटाया।
रेणु के लेखन और राजनीति में विद्रोह की भावना है।
मैला आँचल हिंदी का सर्वश्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास है।
निष्कर्ष
- रेणु ने आंचलिकता को सिर्फ स्थानीय रंग के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जीवंत भाषा के रूप में स्थापित किया। उनकी रचनाएँ आज भी ग्रामीण जीवन को समझने में मदद करती हैं।
- पद्मश्री वापस करने के वर्ष और घोषणा को लेकर अलग-अलग मत क्यों हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
- नेपाली लोकतांत्रिक आंदोलन में रेणु की भूमिका का अध्ययन किया जाना चाहिए।
- 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' में विकास और योजनाओं के चित्रण की तुलना आज की नीतियों से की जानी चाहिए।


