शुरुआती दृश्य:
बोधगया की तंग गलियों में घूमते हुए एक विदेशी पर्यटक की जिज्ञासा भरी नज़रें एक सवाल पूछ रही थीं, ज्ञान की ये धरती, तरक्की की रोशनी कब देखेगी? ये सवाल सिर्फ़ उस पर्यटक का नहीं था, बल्कि यहाँ के हर बाशिंदे के दिल में कहीं दबा हुआ था. आख़िर क्यों नालंदा और राजगीर जैसी ऐतिहासिक धरोहरें होने के बाद भी बिहार पर्यटन के मामले में इतना पीछे रह गया?
इतिहास के पन्ने: विकास की अधूरी कहानी
बोधगया, नालंदा और राजगीर, ये सिर्फ़ नाम नहीं, बल्कि दुनिया के इतिहास में रोशन सितारे हैं. बौद्ध धर्म की जन्मस्थली से लेकर शिक्षा और संस्कृति के केंद्र तक, यहाँ हर कदम पर इतिहास की कहानियाँ दफ़न हैं. नालंदा विश्वविद्यालय कभी दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञान का केंद्र था, जहाँ दूर-दूर से छात्र ज्ञान की तलाश में आते थे. लेकिन, अफ़सोस की बात ये है कि बिहार में पर्यटन को लेकर नीतियाँ बनाने में कहीं न कहीं कमी रह गई, जिसकी वजह से इन जगहों की असली क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पाया.
आज की हालत:
पर्यटन मंत्रालय की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि बिहार आने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या कुल पर्यटकों का सिर्फ़ 3% है, जिनमें से भी ज़्यादातर बोधगया और नालंदा ही आते हैं. इतनी शानदार विरासत होने के बावजूद, यहाँ बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है. साफ़-सफ़ाई, अच्छी सड़कें, इंटरनेट, गाइड और प्रचार जैसी ज़रूरी चीज़ों की कमी की वजह से यहाँ का विकास रुका हुआ है. 2023 में बोधगया के सिर्फ़ 18% होटलों के पास ही लाइसेंस थे. कई जगहों पर तो शौचालय तक नहीं हैं, ट्रैफ़िक बेतरतीब है और सुरक्षा में भी कई कमियाँ हैं.
राज्य सरकार ने कई बार 'बिहार पर्यटन नीति' की घोषणा तो की, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उसका असर बहुत कम दिखता है. 2022 में CAG की रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि नालंदा योजना के बजट का सिर्फ़ 31% हिस्सा ही खर्च किया गया. स्थानीय दुकानदार रमेश यादव कहते हैं, हर साल नेता लोग वादे करते हैं, लेकिन आज तक हमारी दुकानों तक पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था भी नहीं हो पाई है.
ज़मीनी हक़ीकत: लोगों की राय और विशेषज्ञों के विचार
बोधगया के एक होटल मालिक संजीव कुमार का कहना है, यहाँ विदेशी मेहमान तो आते हैं, लेकिन ट्रांसपोर्ट और भाषा की दिक्कत की वजह से उन्हें काफ़ी परेशानी होती है. नालंदा के पुरातत्व विशेषज्ञ डॉ. शुभम झा कहते हैं, पैसा तो है, लेकिन काम करने की इच्छाशक्ति नहीं है. नीतियों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाता. न तो यहाँ प्रशिक्षित गाइड हैं और न ही विदेशों में प्रचार किया जाता है. राजगीर के रहने वाले मनोज सिंह बताते हैं, हमारे यहाँ तो मोबाइल नेटवर्क भी ठीक से नहीं चलता, सड़कें टूटी हुई हैं और पर्यटकों की संख्या घटती जा रही है.
पर्यटन विभाग के अधिकारी ज़रूर ये दावा करते हैं कि नई नीति पर काम चल रहा है, ट्रेंड गाइडों की भर्ती की जाएगी और बजट भी बढ़ाया जा रहा है. लेकिन, विपक्षी नेताओं का आरोप है कि ये सब सिर्फ़ कागज़ी बातें हैं, ज़मीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता.
विरोधाभास और चुनौतियाँ
- बिहार को 'बुद्ध सर्किट' के तौर पर तो प्रचारित किया गया, लेकिन यहाँ कनेक्टिविटी, सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार की कमी है.
- सरकार ने कई घोषणाएँ तो की हैं, लेकिन उनमें से ज़्यादातर योजनाएँ सिर्फ़ कागज़ों तक ही सिमट कर रह गई हैं. स्थानीय लोगों को न तो रोज़गार मिलता है और न ही केसरिया और वैशाली जैसी दूसरी जगहों को ठीक से प्रमोट किया जाता है.
- पर्यटन को बढ़ावा देने वाले लोगों का कहना है कि हमें विदेशी पर्यटकों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनानी होंगी. सोशल मीडिया पर प्रचार, बेहतर इन्फ़्रास्ट्रक्चर और ब्रांडिंग पर ध्यान देना होगा, जो कि अभी भी बहुत पीछे है.
दूसरे देशों से सीख: बिहार क्या सीख सकता है?
अगर हम उत्तर प्रदेश में काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर, राजस्थान में हेरिटेज सर्किट और थाईलैंड के बुद्ध प्रमोशन मॉडल को देखें, तो पाएँगे कि बिहार अभी भी बुनियादी स्तर पर बहुत पीछे है. इन जगहों पर ब्रांडिंग, सस्टेनेबल टूरिज्म, एक्सपर्ट गाइड और डिजिटल मार्केटिंग जैसे तरीकों से पर्यटन को बढ़ावा दिया गया, जबकि बिहार में ज़्यादातर काम सिर्फ़ घोषणाओं तक ही सीमित रहे हैं.
नीतियाँ और प्रतिक्रियाएँ: कौन क्या कह रहा है?
सरकार का कहना है कि हमने बजट बढ़ा दिया है, 'बुद्ध सर्किट' को विकसित किया जा रहा है और युवाओं को रोज़गार मिलेगा. विपक्ष का तर्क है कि नीतियों में पारदर्शिता नहीं है और स्थानीय लोगों को इसमें शामिल नहीं किया जा रहा है. पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सस्टेनेबल टूरिज्म के लिए एक लंबी योजना की ज़रूरत है. आम लोगों का कहना है कि विकास सड़कों से शुरू होता है, घोषणाओं से नहीं.
क्या बदलाव मुमकिन है?
बिहार को अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को आत्मनिर्भरता, विविधता और मज़बूत नीतियों के साथ विकसित करना होगा. क्या स्थानीय लोगों को शामिल किए बिना, पारदर्शिता लाए बिना और पर्यावरण को ध्यान में रखे बिना पर्यटन में बदलाव लाया जा सकता है? ये एक ऐसा सवाल है जो बोधगया, नालंदा और राजगीर की गलियों में हर रोज़ गूँजता है—और जब तक इसका जवाब नहीं मिल जाता, तब तक ये 'पर्यटन मंथन' जारी रहेगा.
विचार करने वाले सवाल:
1. क्या बिहार सरकार अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमोट करने के लिए काफ़ी कोशिश कर रही है?
2. घोषणाएँ बनाम ज़मीनी हक़ीकत—नीति बनाने में इतना फ़र्क़ क्यों है?
3. पर्यटन नीतियों में स्थानीय लोगों की भूमिका कैसे और क्यों शामिल होनी चाहिए?
4. क्या दुनिया के दूसरे मॉडलों को अपनाकर बिहार अपने पर्यटन क्षेत्र को नई ऊँचाई पर ले जा सकता है?
