बिहार में औद्योगिक विकास क्यों पिछड़ रहा है? सरकारी नीतियों, स्थानीय समस्याओं, और निवेश की चुनौतियों के बीच बंद फैक्ट्रियां राज्य के भविष्य को कैसे प्रभावित कर रही हैं
प्रस्ताव
गया की पुरानी मिलों में जंग लगी मशीनें आज भी चुप हैं, शहर में पहले जैसी रौनक नहीं रही—कभी इन कारखानों की आवाज़ बिहार के औद्योगिक सपनों का प्रतीक हुआ करती थी। आज के समय में, निवेश की कमी, सरकारी कामकाज में उलझन और बार-बार नीतियों के बदलने से इनकी पहचान मिट गई है। क्या बिहार का औद्योगिक भविष्य खतरे में है, या सरकार की नई योजनाएँ कुछ बेहतर कर पाएंगी?
पुराना इतिहास
बिहार की औद्योगिक कहानी आज़ादी के बाद के सालों में खूब चमकी, पर झारखंड के अलग होने के बाद राज्य की आर्थिक हालत खराब हो गई और संसाधन कम हो गए। 1990 से 2005 तक यहाँ डर का माहौल था, कानून-व्यवस्था अच्छी नहीं थी और सरकारें स्थिर नहीं थीं, जिसके चलते कारोबारियों ने यहाँ से किनारा कर लिया। बाद में सरकार ने कुछ नियम बदले, लेकिन औद्योगिक निवेश में कोई खास सुधार नहीं हुआ।
आज का हाल:
- 2013-14 में चालू मिलों की संख्या 3,132 थी, जो 2022-23 में घटकर 2,782 रह गई।
- पूरे भारत में छोटे, मझोले और सूक्ष्म उद्योगों में बिहार का हिस्सा सिर्फ 5.47% है।
- राज्य के कुल घरेलू उत्पाद में उत्पादन क्षेत्र का योगदान 2021-22 में 9.9% था, जो 2023-24 में 7.6% रह गया।
- 2024 में ‘बिहार बिजनेस कनेक्ट’ में 1,80,000 करोड़ रुपये के निवेश के प्रस्ताव आए, पर अभी ज़्यादातर काम शुरूआती दौर में ही है।
- बियाडा एमनेस्टी पॉलिसी 2025 के तहत बंद मिलों की ज़मीन नए कारोबारियों को देने की योजना चल रही है, लेकिन झगड़ों और कानूनी अड़चनों की वजह से बहुत सारी यूनिटें अभी भी बंद हैं।
लोगों की राय
- पटना के एक पुराने मज़दूर संतोष यादव बताते हैं, “जब मिल बंद हुई, तो हम सैकड़ों लोग बेरोज़गार हो गए, सरकार के वादे सिर्फ कागज़ों पर ही रह गए।”
- उद्योग के जानकार अजय सिंह का कहना है, “बिहार के युवाओं में हुनर है, लेकिन यहाँ अच्छे उद्योग न होने की वजह से लोग दूसरे राज्यों में जा रहे हैं। योजनाएँ तो बन रही हैं, लेकिन निवेशक ऐसा माहौल चाहते हैं जिस पर भरोसा किया जा सके।”
- एक सरकारी अधिकारी संजय झा (जदयू) के मुताबिक, “बियाडा एमनेस्टी पॉलिसी से बंद मिलों को फिर से शुरू करने का रास्ता खुल रहा है, चुनाव के बाद नई सरकार इसे और तेज़ी से आगे बढ़ाएगी।”
- राजनीतिक कार्यकर्ता कविता मिश्रा सवाल उठाती हैं, “सरकार आँकड़ों में उम्मीद दिखाती है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर बेरोज़गारी और बंद मिलें अब भी बड़ी समस्याएँ हैं।”
नीतियों में टकराव और मुश्किलें
- सरकारी कामकाज में उलझन, ज़मीन के झगड़े, अदालतों में अटके मामले और ग्रांट मिलने में देरी निवेशकों को निराश करती है।
- बार-बार नीतियाँ बदलने से लंबे समय तक कारोबार करना मुश्किल हो जाता है।
- भ्रष्टाचार, संपत्ति के विवाद और राजनीति की दखलंदाज़ी अक्सर उद्योगों के विकास में रुकावट बनते हैं।
- एमनेस्टी पॉलिसी, निवेश को बढ़ावा देने वाले पैकेज और मुफ्त ज़मीन देने की योजनाएँ तो हैं, लेकिन ज़मीन मिलने और उसके इस्तेमाल में अभी भी देरी हो रही है।
दूसरे राज्य और दुनिया के उदाहरण
- गुजरात, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने कारोबार करने में आसानी, भूमि सुधार और इकोनॉमिक ज़ोन जैसे तरीकों से निवेशकों के लिए अच्छा माहौल बनाया, जिससे बड़े उद्योग लगे।
- बिहार में इन नीतियों को पूरी तरह से लागू न करने की वजह से निवेश कम होता है; दूसरे राज्यों में प्राइवेट निवेश और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का प्रतिशत बहुत ज़्यादा है।
- दुनिया भर में वियतनाम जैसे देशों ने मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए टैक्स में छूट और आसान नियम बनाकर विदेशी निवेश को खींचा है।
आखिरी बात:
बिहार में उद्योगों के विकास का सफर मुश्किलों से भरा है—बंद मिलें और निवेश की कमी राज्य के भविष्य पर सवाल खड़े करती हैं। सवाल यह है कि क्या नई नीतियाँ ज़मीनी स्तर पर कुछ बदलाव ला पाएंगी, या यह सिर्फ चुनावी वादे ही बनकर रह जाएंगी? जब तक सरकारी और नीतिगत अड़चनों को दूर नहीं किया जाता, तब तक उद्योगों को फिर से खड़ा करना सिर्फ एक सपना ही रह सकता है। आम लोग, जानकार और युवा मिलकर नीतियों पर खुलकर बात करें—बहस करें, सवाल पूछें और जवाबदेही की माँग करें।
बातचीत के लिए सवाल
- क्या नई औद्योगिक नीति वाकई राज्य में स्थायी निवेश और रोज़गार को बढ़ा पाएगी?
- बंद मिलों को फिर से शुरू करने में सबसे बड़ी मुश्किल क्या है—नीति, सरकारी काम या राजनीतिक इच्छाशक्ति?
- बिहार में औद्योगिक विकास को तेज़ करने के लिए क्या दूसरे राज्यों की अच्छी नीतियों को अपनाना फायदेमंद होगा?
- आम जनता, विशेषज्ञों और सरकार के बीच बातचीत और सहयोग बढ़ाने के कौन से तरीके कारगर हो सकते हैं?
