बिहार में 1,050 एकड़ जमीन का '1 रुपये' का लीज विवाद: बिजली परियोजना, राजनीति और चुनाव पर असर
मामला क्या है?
बिहार में एक बड़े ज़मीन विवाद ने राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि भागलपुर जिले के पीरपैंती इलाके में 1,050 एकड़ ज़मीन और लगभग 10 लाख पेड़ एक प्राइवेट कंपनी को सिर्फ़ 1 रुपये सालाना पर 33 साल के लिए लीज पर दे दिए गए हैं। ये ज़मीन एक बड़े थर्मल पावर प्रोजेक्ट के लिए दी गई है।
लेकिन बिहार सरकार का कहना है कि सब कुछ कायदे से हुआ है। सरकार के मुताबिक, टेंडर निकाला गया था और सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी को ही ये प्रोजेक्ट मिला है।
ये विवाद तब शुरू हुआ जब प्रधानमंत्री ने इस प्रोजेक्ट का शिलान्यास किया। ये प्रोजेक्ट 3×800 मेगावाट का है, यानी कुल 2,400 मेगावाट बिजली पैदा करेगा। अब चुनाव का माहौल है, तो इस मुद्दे पर सरकार और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप तेज़ हो गए हैं।
पहले क्या हुआ?
जनवरी 2024 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़कर फिर से बीजेपी के साथ सरकार बना ली। इससे राज्य की राजनीति में बड़ा बदलाव आया।
2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को 125 सीटें मिली थीं, जो बहुमत से थोड़ी ही ज़्यादा थीं। आरजेडी 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। इससे पता चलता है कि बिहार में मुकाबला हमेशा कांटे का होता है।
2025 के अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव आयोग त्योहारों को ध्यान में रखते हुए कई चरणों में वोटिंग करा सकता है। इसलिए, हर राजनीतिक कदम का असर चुनाव पर पड़ने की संभावना है।
अभी क्या हो रहा है?
कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा कि पीरपैंती में 1,050 एकड़ ज़मीन और 10 लाख आम, लीची और सागौन के पेड़ 33 साल के लिए सिर्फ़ 1 रुपये सालाना पर दिए जा रहे हैं। उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि किसानों पर दबाव डालकर कागज़ों पर साइन कराए गए। खेड़ा ने इसे डबल लूट बताया।
लेकिन राज्य सरकार का कहना है कि ये कोई तोहफा नहीं है। सरकार का कहना है कि ये प्रोजेक्ट एक कॉम्पिटिशन के ज़रिए दिया गया है, जिसमें चार कंपनियों ने हिस्सा लिया था। सबसे कम टैरिफ़ (₹6.075/यूनिट) की पेशकश करने वाली कंपनी को ये काम मिला है।
अडानी पावर नाम की कंपनी बिहार को 2,400 मेगावाट बिजली सप्लाई करेगी। इसके लिए कंपनी ने बिहार स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी के साथ 25 साल का एग्रीमेंट किया है। कंपनी इस प्रोजेक्ट पर लगभग ₹26,000 करोड़ खर्च करेगी और इसे 60 महीनों में पूरा करने की योजना है। केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने इस प्रोजेक्ट का शिलान्यास कर दिया है, जिससे इसे आगे बढ़ने में मदद मिलेगी।
सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे को लेकर काफ़ी बहस हो रही है। यूट्यूब, ऑनलाइन फ़ोरम और पोस्ट में लोग लीज की कीमत, पर्यावरण पर असर और बिजली की दरों को लेकर अपनी राय रख रहे हैं।
इसका क्या मतलब है?
बिहार में 2020 का चुनाव बहुत ही करीबी था। इसलिए, इस तरह के मुद्दे लोगों की सोच पर असर डाल सकते हैं, खासकर उन इलाकों में जहां जीत-हार का अंतर कम होता है।
बिहार में EBC और OBC समुदाय की आबादी लगभग 63% है, जबकि मुस्लिम आबादी लगभग 17.7% है। ऐसे में, ये मुद्दे जाति और वर्ग के समीकरणों को और भी उलझा सकते हैं।
पूर्वांचल और सीमांचल जैसे इलाकों में भी इस मुद्दे का असर हो सकता है, क्योंकि सीमांचल में मुस्लिम आबादी ज़्यादा है। शिलान्यास और निवेश की बातें चुनाव से पहले लोगों को लुभाने की कोशिशें लग सकती हैं।
लोगों पर क्या असर होगा?
सरकार का कहना है कि कम दाम पर बिजली मिलने से राज्य की बिजली क्षमता बढ़ेगी और लोगों को भरोसेमंद बिजली मिलेगी। लेकिन विपक्ष का कहना है कि ₹6.075/यूनिट का टैरिफ़ दूसरे राज्यों के मुकाबले महंगा है और इससे लोगों पर बोझ बढ़ेगा।
किसानों और पर्यावरण को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटा जाएगा और ज़मीन अधिग्रहण में किसानों पर दबाव डाला जाएगा। इससे स्थानीय लोगों की ज़िंदगी, हरियाली और मुआवज़े जैसे मुद्दे सामने आ रहे हैं।
अगर ये प्रोजेक्ट समय पर पूरा हो जाता है, तो इससे इंडस्ट्री को बढ़ावा मिलेगा, नौकरियां पैदा होंगी और दूसरी सेवाओं में भी मौके बढ़ेंगे। लेकिन लोगों को भरोसा नहीं है कि ये प्रोजेक्ट पर्यावरण और सामाजिक तौर पर ठीक होगा, इसलिए विवाद लंबा चल सकता है।
आगे क्या हो सकता है?
विपक्ष 1 रुपये-33 साल के नारे को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करेगा। इससे वो किसानों, पर्यावरण और ग्राहकों के मुद्दे उठा सकते हैं।
वहीं, सरकार कॉम्पिटिशन, निवेश और क्षमता की बात करके विकास की राजनीति को आगे बढ़ाएगी। वो रोज़गार, बुनियादी ढांचा और भरोसेमंद बिजली सप्लाई का वादा करेगी।
2025 में चुनाव होने हैं और मुकाबला कड़ा होने की उम्मीद है। इसलिए, पार्टियां अलग-अलग इलाकों और समुदायों के हिसाब से अपनी रणनीति बनाएंगी, ताकि सीमांचल, अंग, मगध और मिथिला जैसे इलाकों में लोगों की भावनाओं को समझकर बात की जा सके।
क्षेत्रीय और जातीय समीकरण
सीमांचल में मुस्लिम आबादी वाले जिले हैं - किशनगंज, कटिहार, अररिया, पूर्णिया। यहां की राजनीति पर सामाजिक और आर्थिक मुद्दों का सीधा असर पड़ता है। यहां वोट बैंक का खेल छोटे-छोटे बदलावों पर निर्भर करता है।
पूरे राज्य में EBC-OBC समुदाय के लोग ज़्यादा हैं। इनके लिए विकास, रोज़गार और बिजली की कीमत जैसे मुद्दे मायने रखते हैं। इसलिए, लीज और बोली के विवाद को भी आर्थिक फ़ायदे-नुकसान के हिसाब से देखना ज़रूरी है।
बिहार में गठबंधन बदलना और विकास की बातें हमेशा से मतदाताओं के दिमाग पर असर डालती रही हैं। 2024 में एनडीए ने फिर से सरकार बना ली है और वो इसे अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है।
एक्सपर्ट्स क्या सोचते हैं?
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बिहार जैसे करीबी मुकाबले वाले राज्य में कृपा और निवेश की बातें चुनाव की बहस को और बढ़ा सकती हैं। इससे वोटर्स का मिजाज बदल सकता है।
नीतीश कुमार ने कई बार गठबंधन बदले हैं। 2025 में चुनाव होने हैं, इसलिए दोनों पार्टियां विकास और भरोसे और साफ़-सुथरी और न्याय के नाम पर अपना-अपना पक्ष मजबूत करने की कोशिश करेंगी।
प्रोजेक्ट का शिलान्यास होने से सरकार को फ़ायदा होगा, लेकिन विपक्ष पारदर्शिता और पर्यावरण के मुद्दे उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश करेगा।
आखिर में
ये मामला सिर्फ ज़मीन की लीज का नहीं है। ये विकास की परिभाषा, पारदर्शिता, किसानों, पर्यावरण और लोगों के फ़ायदे के बीच बैलेंस बनाने का सवाल है। जैसे-जैसे 2025 के चुनाव नज़दीक आएंगे, सरकार टेंडर-टैरिफ़-टाइमलाइन की बात करेगी और विपक्ष 1 रुपये-33 साल-10 लाख पेड़ जैसे प्रतीकात्मक सवाल उठाएगी। आखिर में, लोग कीमत, रोज़गार और भरोसे के आधार पर फ़ैसला करेंगे।
