गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही': द्विवेदी युग के जन-जागरण के अद्वितीय कवि

'सनेही' जी, जिन्होंने देशभक्ति, जन-चेतना, और मंचीय कविता के संगम पर खड़े होकर अपनी रचनाओं से समाज को आलोकित किया, न केवल एक कवि थे, बल्कि एक संपादक और कवि-सम्मेलन परंपरा के पथ-प्रदर्शक भी थे। उन्होंने 'सनेही', 'त्रिशूल', 'तरंगी', और 'अलमस्त' जैसे विभिन्न नामों से अपनी काव्य-धारा को जन-जन तक पहुंचाया और 20वीं सदी के हिंदी नव-जागरण को अपनी वाणी से समृद्ध किया।

सार-संक्षेप

हिंदी के द्विवेदी युग में 'सनेही' ने राष्ट्रीय भावना, सामाजिक जागरूकता, और हास्य-व्यंग्य को एक साथ मिलाकर एक अनूठी परंपरा की शुरुआत की। उन्होंने अपनी लेखनी और संपादन कौशल से 'कवि-सम्मेलन' को एक जन-आंदोलन का रूप दे दिया।
उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ, जो भरा नहीं है भावों से..., आज भी विद्यालयों और सार्वजनिक समारोहों में गूंजती हैं, और यह विवादों के बावजूद उनकी पहचान को स्थापित करती हैं।

जीवन परिचय

  • नाम: गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही'
  • जन्म: 21 अगस्त 1883, हड़हा गाँव, उन्नाव (जन्म तिथि को लेकर कुछ विवाद भी हैं: 16/21 अगस्त 1883)
  • माता-पिता: पिता: अवसेरीलाल/अक्सेरीलाल शुक्ल; माता: रुक्मिणी देवी
  • शिक्षा: उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन; 1902 में नार्मल प्रशिक्षण, लखनऊ
  • मुख्य भूमिकाएँ: कवि, संपादक ('वर्तमान', 'कवि', 'सुकवि'), कवि-सम्मेलन के आयोजक
  • उपनाम: 'सनेही' (कोमल/श्रृंगार), 'त्रिशूल' (राष्ट्रीय), 'तरंगी' व 'अलमस्त' (हास्य-व्यंग्य)
  • प्रमुख रचनाएँ: प्रेम पचीसी (c.1905), कुसुमांजलि (1915), कृषक-क्रंदन (1916), त्रिशूल तरंग (1919), राष्ट्रीय मंत्र (1921), संजीवनी (1921, संपादित), राष्ट्रीय वीणा (1922), कलाम-ए-त्रिशूल (c.1930), करुणा कादंबिनी (1958)
  • महत्वपूर्ण घटना: 1921 में असहयोग आंदोलन के आह्वान पर अध्यापन कार्य छोड़ा; 1928 से 'सुकवि' का 22 वर्षों तक प्रकाशन
  • सम्मान: साहित्य-सितारेंदु, साहित्य-वारिधि (1966), साहित्य-वाचस्पति (1968), मानद डी.लिट्. (कानपुर विश्वविद्यालय, 1970)
  • निधन: 20 मई 1972, कानपुर
  • 1883: हड़हा, उन्नाव में जन्म; 16/21 अगस्त की तिथि को लेकर विवाद
  • 1898: मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण
  • 1899: अध्यापन कार्य में प्रवेश
  • 1902: लखनऊ में नार्मल प्रशिक्षण
  • 1904-05: पहली रचनाएँ 'रसिक मित्र' आदि में प्रकाशित
  • 1913: 'प्रताप' में राष्ट्रीय कविताएँ; 'कृषक-क्रंदन' से पहचान
  • 1914: 'सरस्वती' (प्रयाग) में लेखन प्रारंभ
  • 1915: 'कुसुमांजलि' प्रकाशित
  • 1916: 'कृषक-क्रंदन' प्रकाशित
  • 1919: 'त्रिशूल तरंग' प्रकाशित
  • 1921: असहयोग पर अध्यापन त्याग; 'राष्ट्रीय मंत्र' और 'संजीवनी' (संपादित)
  • 1922: 'राष्ट्रीय वीणा' (संपादित); बीएचयू पद अस्वीकार
  • 1928: 'सुकवि' का प्रकाशन आरम्भ
  • 1958: 'करुणा कादंबिनी' प्रकाशित
  • 1966-68: साहित्य-वारिधि (1966), साहित्य-वाचस्पति (1968) की उपाधि
  • 1970: मानद डी.लिट्., कानपुर विश्वविद्यालय
  • 1972: 20 मई, कानपुर में निधन

परिचय

जो भरा नहीं है भावों से... जैसी पंक्तियों ने राष्ट्रीय भावनाओं को जन-जन तक पहुंचाया और 'सनेही' का नाम आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर कर दिया, भले ही उन्हें श्रेय मिलने में कुछ भ्रम हुआ हो।
उन्होंने 'त्रिशूल' नाम से लिखी राष्ट्रीय कविताओं के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी और 'सनेही', 'तरंगी' और 'अलमस्त' जैसे रूपों से मंचीय प्रस्तुति का एक नया तरीका विकसित किया, जिसने कवि-सम्मेलन को एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रम बना दिया।

प्रारंभिक जीवन

गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' का जन्म उन्नाव जिले के बैसवारा क्षेत्र के हड़हा गाँव में हुआ। यहीं पर उनके पारिवारिक मूल्यों और अवधी-ब्रज संस्कृति के संगम ने उनकी साहित्यिक समझ को आकार दिया।
उनके पिता का नाम अवसेरीलाल/अक्सेरीलाल शुक्ल और माता का नाम रुक्मिणी देवी था। पिता के नाम की वर्तनी में भिन्नता विभिन्न स्रोतों में पाई जाती है।
उनकी जन्म तिथि को लेकर भी कुछ मतभेद हैं, विक्रम संवत् तिथि के अनुसार ग्रेगोरियन तिथि 16 या 21 अगस्त 1883 हो सकती है।

शिक्षा और प्रभाव

  • बचपन में उन्होंने उर्दू और फारसी का गहन अध्ययन किया, जिसने उन्हें 'त्रिशूल' नाम से राष्ट्रीय गीत लिखने में मदद की।
  • 1898 में मिडिल पास करने के बाद, 1899 से उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू किया। 1902 में लखनऊ में नार्मल प्रशिक्षण ने उन्हें शिक्षा प्रणाली और नवजागरण के शहरी माहौल से जोड़ा।
  • लखनऊ में रहते हुए, उन्होंने ब्रज, खड़ी बोली और उर्दू के कवियों से मुलाकात की, जिससे उनकी भाषा शैली विकसित हुई, जो बाद में उनके चार उपनामों में दिखाई दी।

कैरियर की शुरुआत

  • लगभग 1904-05 में, उनकी पहली रचनाएँ 'रसिक मित्र' और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जिससे उन्हें पहचान मिली और संपादकीय क्षेत्र में उनके लंबे करियर की शुरुआत हुई।
  • 1913 में, गणेश शंकर विद्यार्थी के कहने पर, उनकी राष्ट्रीय कविताएँ 'प्रताप' में छपने लगीं, और 'कृषक-क्रंदन' ने आचार्य द्विवेदी का ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद उन्हें 'सरस्वती' (1914) में लिखने का अवसर मिला।
  • इसी समय, 'त्रिशूल' के रूप में उनकी पहचान बनी, जब उनकी देशभक्ति पूर्ण कविताओं की गूंज ब्रिटिश शासकों तक पहुंची।

उपलब्धियाँ

'सनेही' उपनाम से श्रृंगार और कोमल भावनाओं, 'त्रिशूल' से राष्ट्रीय विचारों, और 'तरंगी' व 'अलमस्त' से हास्य और व्यंग्य की त्रिवेणी ने हिंदी कविता में एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया।
उनकी 'स्वदेश' कविता की पंक्तियाँ वह हृदय नहीं है पत्थर है... स्कूलों से लेकर जन-आंदोलनों तक प्रसिद्ध हुईं। समय-समय पर श्रेय को लेकर भ्रम होने के बावजूद, उनके नाम को प्रमाणिक दस्तावेजों में हमेशा सही बताया गया है।
कवि-सम्मेलनों की अध्यक्षता और पूरे भारत में यात्रा करने से कविता को मंच पर प्रस्तुत करने का महत्व बढ़ा, जिससे 'कवि-सम्मेलन' एक स्थायी सांस्कृतिक संस्थान बन गया।

महत्वपूर्ण निर्णय

1921 में असहयोग आंदोलन के आह्वान पर, उन्होंने 22 वर्षों का अध्यापन कार्य छोड़कर सार्वजनिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का निर्णय लिया।
सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद, 1922 में मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर बीएचयू में पद स्वीकार न करना, उनकी स्वतंत्र बौद्धिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रमाण था।
कानपुर में 'वर्तमान' दैनिक का प्रकाशन, 'कवि' पत्रिका का संपादन, और 1928 से 'सुकवि' का 22 वर्षों तक प्रकाशन, उनके संपादन कौशल को दर्शाते हैं।

विवाद

जो भरा नहीं है... का श्रेय कई वर्षों तक मैथिलीशरण गुप्त को दिया जाता रहा, लेकिन कई प्रकाशनों ने इसे 'सनेही' की रचना बताया।
ब्रिटिश शासन के दौरान 'त्रिशूल' नामक कवि की खोज की कहानी प्रसिद्ध है, लेकिन इसे ऐतिहासिक तथ्य मानने से पहले अभिलेखीय प्रमाणों की आवश्यकता है।
उनके खिलाफ किसी भी कानूनी मामले की जानकारी नहीं है, जो उनकी सार्वजनिक छवि को स्पष्ट करती है।

व्यक्तित्व

'सनेही' की कविता में उर्दू-बहर, संस्कृत छंद और हिंदी छंदों का मिश्रण है, जिससे उनकी रचनाएँ सुनने में अच्छी लगती हैं।
उनकी भाषा शैली में खड़ी बोली और ब्रज भाषा का संतुलन है, और 'त्रिशूल' में उर्दू का मिश्रण उनकी समावेशी सोच को दर्शाता है।
कवि-सम्मेलनों में उनकी लोकप्रियता से पता चलता है कि उनका लोगों से गहरा जुड़ाव था, हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि मंच पर अधिक ध्यान देने से उनकी रचनात्मकता का मूल्यांकन कम हो गया।

विरासत

उनकी रचनाओं का संग्रह इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित किया गया है।
1966 से 1970 के बीच उन्हें कई सम्मान मिले, और 1972 में उनकी मृत्यु तक वे सक्रिय रहे। 'सनेही' आधुनिक हिंदी के उन व्यक्तियों में से एक हैं जिनकी विरासत आज भी मंच, पत्रिकाओं और कविताओं में जीवित है।
समकालीन मीडिया और साहित्यिक लेखों में उनकी कविताएँ आज भी प्रकाशित होती हैं, जिससे उनकी देशभक्ति की भावना बनी रहती है।

उल्लेखनीय उद्धरण

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं; वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - कविता: 'स्वदेश' 
किसी को नहीं बनाया दास, किसी का किया नहीं उपहास... - कविता: भारत संतान 
झन-झन झनक रही हैं कड़ियाँ... - कविता: झन-झन झनक रही हैं कड़ियाँ 
आँखों की तरह दिल्ली के हैं दर खुले हुए... - कविता: सुभाषचन्द्र

विचारणीय प्रश्न

  1. क्या कवि-सम्मेलनों ने 'सनेही' की रचनात्मकता को सीमित किया?
  2. 'स्वदेश' कविता के श्रेय को लेकर क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?
  3. उनकी भाषा शैली को हिंदी शिक्षण में कैसे शामिल किया जा सकता है?
  4. 'त्रिशूल' के बारे में और जानकारी कैसे प्राप्त की जा सकती है?

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