मिथिला पेंटिंग, भोजपुरी/मैथिली सिनेमा और लोकगीतों पर बाज़ार और राजनीति का साया

जीआई-टैग वाली मिथिला पेंटिंग का रोज़गार का सफर, भोजपुरी/मैथिली सिनेमा में गुणवत्ता और लोकप्रियता की बहस, और लोकगीतों की परंपरा पर नीतिगत फैसले, बाज़ार और डिजिटल रुझानों का असर—आंकड़ों और ज़मीनी हकीकत के साथ एक खोज

परिचय

बिहार की सांस्कृतिक पहचान—मिथिला पेंटिंग, भोजपुरी-मैथिली सिनेमा और लोकगीत—आज पहचान, रोज़गार और सम्मान के संगम पर खड़े हैं। ये तीनों चीजें बाज़ार, नीति और डिजिटल बदलावों के चौराहे पर हैं, जहाँ जीआई-टैग, आजीविका मिशन और भाषा को मान्यता देने की बातें आपस में उलझी हुई दिखती हैं। हाल ही में मीडिया में भोजपुरी संगीत-सिनेमा की अश्लीलता पर सवाल उठे थे। वहीं दूसरी ओर, मिथिला पेंटिंग की कारीगर परंपरा बाज़ारी दबावों से जूझ रही है, जिससे सांस्कृतिक गिरावट के नए और पेचीदा रूप सामने आ रहे हैं।

इतिहास की झलक

मिथिला पेंटिंग की दीवारों से कागज़ और कैनवास तक की यात्रा एक महिला कला परंपरा और सामुदायिक स्मृति का दस्तावेज़ रही है। इसकी खास शैली और प्राकृतिक रंगों की वजह से इसे 2007 में जीआई-टैग मिला, जिससे इसे इलाके की पहचान और बाज़ार में सुरक्षा मिली। भोजपुरी और मैथिली के लोकगीत लंबे समय से प्रवास, खेती और त्योहारों की कहानियाँ सुनाते आ रहे हैं, लेकिन भाषा नीति और बाज़ार के दबाव ने इन पर गहरा असर डाला है। 2003 में 92वें संशोधन से मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया, जबकि भोजपुरी अब भी मान्यता का इंतजार कर रही है। इससे उद्योग और संस्कृति को बचाने की कोशिशों में असमानता बनी हुई है।

मिथिला पेंटिंग: पहचान और चुनौतियाँ

सरकारी दस्तावेज़ बताते हैं कि 2007 में ‘मधुबनी/मिथिला पेंटिंग’ को जीआई-टैग मिला, जिससे इस कला की भौगोलिक पहचान और कारीगरों के अधिकारों को कानूनी सुरक्षा मिली। लेकिन बदलते बाज़ार में कच्चे माल की बढ़ती कीमतें, दलालों का जाल और ब्रांडिंग की कमी जैसी पुरानी मुश्किलें अब भी बनी हुई हैं। जीविका (BRLPS) के एक अध्ययन के मुताबिक, राज्य में आजीविका मिशन ने 1.27 करोड़ से ज़्यादा परिवारों तक पहुँच बनाई है और हस्तशिल्प जैसे क्षेत्रों में बाज़ार को मज़बूत किया है। लेकिन छोटी इकाइयों को मार्केटिंग, डिज़ाइन में सुधार और ई-कॉमर्स के लिए अभी भी मदद की ज़रूरत है। बाज़ार की रिपोर्टों से पता चलता है कि मेले-हाट और बिचौलियों पर निर्भरता, कीमतों में उतार-चढ़ाव और सामुदायिक फीस जैसे नियम कारीगरों की कमाई पर असर डालते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर एक मज़बूत और निष्पक्ष बाज़ार बनाने के लिए काम करें।

भोजपुरी/मैथिली सिनेमा: लोकप्रियता या गुणवत्ता?

भोजपुरी सिनेमा और संगीत में अश्लीलता के मुद्दे ने इस बहस को तेज़ कर दिया है कि क्या सिर्फ लोकप्रिय होना ही गुणवत्ता, सम्मान और सामाजिक ज़िम्मेदारी से ज़्यादा ज़रूरी है। मीडिया में भी यह सवाल बार-बार उठाया गया है। बीजेपी सांसद और अभिनेता रवि किशन ने लोकसभा में एक निजी विधेयक के ज़रिए भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करते हुए कहा कि भाषा ‘सिर्फ अश्लील गानों तक सीमित नहीं’ है, बल्कि इसमें साहित्य और रोज़गार की भी अपार संभावनाएं हैं। इससे यह सवाल उठता है कि सांस्कृतिक सम्मान और बाज़ार में से किसे ज़्यादा अहमियत दी जाए। वहीं, निर्देशक नितिन चंद्रा ने तीन सुझाव दिए हैं—कलाकारों में बदलाव, प्रोडक्शन की गुणवत्ता में सुधार और थिएटरों में रिलीज़ करके नए दर्शकों तक पहुँचना। ये सुझाव बताते हैं कि कंटेंट को बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है।

लोकगीत: परंपरा, मंच और बाज़ार

लोकगीतों की परंपरा को मंच, शिक्षा और मीडिया में जगह दिलाने की कोशिशें सरकार की योजनाओं में दिखती हैं, जैसे संस्कृति मंत्रालय की छात्रवृत्ति योजनाएं, युवा कलाकार छात्रवृत्ति (SYA) और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की पहलें। लेकिन इन योजनाओं की पहुँच सीमित होने की वजह से लोकगीतों को लगातार आगे बढ़ाने में दिक्कतें आ रही हैं। बिहार ने ‘मुख्यमंत्री गुरु-शिष्य परंपरा योजना’ जैसी योजनाएं शुरू करके गुरुओं और शिष्यों के ज़रिए पुरानी परंपराओं को बचाने की कोशिश की है। इस योजना में दो साल की ट्रेनिंग और मेहनताना देकर पीढ़ियों के बीच ज्ञान का पुल बनाने की बात कही गई है। राष्ट्रीय स्तर पर भी ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ के लिए आर्थिक मदद और मंच उपलब्ध हैं, लेकिन राज्य की संस्कृति के हिसाब से लंबे समय तक फंडिंग, दस्तावेज़ीकरण और स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम से जोड़ने जैसी चीज़ें अक्सर सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित रह जाती हैं।

ज़मीनी हकीकत

कला, संस्कृति और युवा विभाग के एक अधिकारी ने ‘मुख्यमंत्री गुरु-शिष्य परंपरा योजना’ के बारे में कहा, “यह योजना पीढ़ियों के बीच एक पुल का काम करेगी, ताकि बिहार की सांस्कृतिक पहचान अगली पीढ़ियों तक बनी रहे।” यह योजना ट्रेनिंग और आर्थिक मदद के बीच संतुलन बनाती दिखती है। रवि किशन का यह कहना कि “भाषा सिर्फ अश्लील गानों तक सीमित नहीं है” यह दिखाता है कि भाषा की गरिमा और उद्योग की दिशा को जोड़ना ज़रूरी है, ताकि सिनेमा और संगीत समाज के प्रति ज़िम्मेदार बने रहें। निर्देशक नितिन चंद्रा के सुझाव भी बताते हैं कि दर्शकों को कैसे जोड़ा जाए और गुणवत्ता में कैसे सुधार किया जाए।

नीतियाँ, वादे और कमियाँ

एक तरफ जीआई-टैग और आजीविका मिशन जैसे प्रयास कारीगरों को बाज़ार, पैसे और ट्रेनिंग से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ दलालों का दबदबा, डिज़ाइन में मदद की कमी और डिजिटल मार्केटिंग की कमी जैसी बाधाएं कमाई को अस्थिर बना रही हैं। केंद्र सरकार की छात्रवृत्ति योजनाएं और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की पहलें सीमित हैं, जिससे ज़्यादा कलाकारों और ग्रामीण युवाओं तक पहुँच बनाना मुश्किल हो रहा है। भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने में हो रही देरी से शिक्षा, प्रकाशन, प्रसार भारती और राज्य सरकार के संस्कृति विकास कार्यक्रमों पर असर पड़ रहा है, जबकि मैथिली को संवैधानिक मान्यता मिलने से संस्कृति को मज़बूत करने के ज़्यादा मौके मिल रहे हैं।

तुलनात्मक नज़रिया

भारतीय संविधान में मैथिली (2003) को मान्यता मिलना और भोजपुरी की मांग अभी तक पूरी न होना यह दिखाता है कि भाषा नीति ही संस्कृति से जुड़े उद्योग को आगे बढ़ाने, मंच देने और सम्मान दिलाने में सबसे अहम भूमिका निभाती है। इससे कंटेंट की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है। मॉरीशस और नेपाल में भोजपुरी को संवैधानिक/आधिकारिक दर्जा मिलने से पता चलता है कि जब नीति और समाज का दबाव मिलता है, तो उद्योग सही दिशा में आगे बढ़ता है। इसी तरह, जीआई-टैग वाले दूसरे भारतीय शिल्पों के लिए सरकार की मदद को देखते हुए मिथिला पेंटिंग के लिए भी डिज़ाइन, मार्केटिंग और ई-कॉमर्स पर ध्यान देने से कारीगरों की कमाई को स्थिर किया जा सकता है, जैसा कि जीविका के कार्यक्रमों से पता चलता है।

अलग-अलग राय

सरकार का कहना है कि जीआई-टैग, आजीविका मिशन, छात्रवृत्तियां और गुरु-शिष्य योजनाएं ज़रूरी मदद दे रही हैं और नई योजनाओं से पुरानी परंपराओं को सहारा मिलेगा। बिहार की नई गुरु-शिष्य पहल और केंद्र की युवा कलाकार छात्रवृत्ति इसके उदाहरण हैं। विपक्ष और विशेषज्ञों का मानना है कि सांस्कृतिक उद्योग में सुधार किए बिना—जैसे कंटेंट को साफ-सुथरा करना, दर्शकों को जोड़ना, नए डिज़ाइन बनाना और भाषा को मान्यता देना—ये योजनाएं सिर्फ दिखावटी साबित होंगी और इनसे कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा। मीडिया में भी यह बात उठाई गई है। जंतर-मंतर पर भाषा को मान्यता देने की मांग और लोकसभा में निजी विधेयक पेश करना यह दिखाते हैं कि नीति पर सामाजिक दबाव है, जिसे अब समय पर पूरा करना ज़रूरी है।

केस स्टडी और मौजूदा हालात

जीविका ने 15 सालों में 1.27 करोड़ से ज़्यादा परिवारों तक पहुँच बनाई है और स्वयं सहायता समूहों (SHG) के ज़रिए हस्तशिल्प जैसे क्षेत्रों में काम किया है। इससे कला पर आधारित आजीविका को बढ़ावा मिला है। बाज़ार से जुड़े अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि कारीगर हाट-मेलों और बिचौलियों पर निर्भर हैं, जिससे उनकी कमाई कम होती है। इसलिए ज़रूरी है कि सरकार नीतियाँ बदले ताकि कारीगरों को ज़्यादा फायदा मिल सके। भाषा के मोर्चे पर, भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग और निजी विधेयक पेश करना यह दिखाते हैं कि इस मामले में जल्द कार्रवाई की ज़रूरत है।

निष्कर्ष

सांस्कृतिक गिरावट का सवाल सिर्फ यह नहीं है कि ‘क्या खो रहा है’, बल्कि यह भी है कि ‘कैसे और किसके लिए’। जीआई-टैग से लेकर भाषा को मान्यता देने, आजीविका मिशन से लेकर कंटेंट में सुधार करने तक, हर कदम समय पर और पारदर्शिता के साथ उठाना ज़रूरी है। यह तभी मुमकिन होगा जब सरकार, उद्योग और समाज मिलकर कारीगरों की शिक्षा, महिलाओं को आगे बढ़ाने, दर्शकों को जोड़ने और अच्छी सामग्री को बढ़ावा देने को प्राथमिकता दें—वरना सिर्फ लोकप्रियता की बातें ही होती रहेंगी और परंपराएं धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी।

मुख्य आँकड़े/डेटा

  • मिथिला/मधुबनी पेंटिंग को 2007 में जीआई-टैग मिला; यह बिहार सरकार के जीआई दस्तावेज़ में दर्ज है।
  • जीविका (BRLPS) ने 15 सालों में 1.27 करोड़ से ज़्यादा परिवारों तक पहुँच बनाई है और स्वयं सहायता समूहों (SHG) के ज़रिए गैर-कृषि आजीविका को बढ़ावा दिया है।
  • भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए 2024 में निजी विधेयक पेश किया गया; सांसदों ने भाषा की गरिमा और उद्योग के विकास का मुद्दा उठाया।
  • मैथिली को 2003 के 92वें संवैधानिक संशोधन से आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया; यह 2004 में लागू हुआ।
  • संस्कृति मंत्रालय की ‘युवा कलाकार छात्रवृत्ति’ योजना के तहत 400 छात्रों को 5,000 रुपये प्रति माह की छात्रवृत्ति दी जाती है; ZCC/CTSSS जैसे कार्यक्रम लोक कलाओं को मंच देते हैं।
  • बिहार की ‘मुख्यमंत्री गुरु-शिष्य परंपरा योजना’ में 2025–26 के लिए बजट और मेहनताना तय किया गया है; इसमें 2 साल की ट्रेनिंग दी जाएगी।

चर्चा के लिए सवाल

  1. क्या भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में मान्यता मिलने से कंटेंट की गुणवत्ता और उद्योग के तौर-तरीकों पर सकारात्मक असर पड़ेगा, या यह सिर्फ एक दिखावा होगा?
  1. मिथिला पेंटिंग के लिए जीआई-टैग मिलने के बाद सबसे बड़ी कमी डिज़ाइन में बदलाव, डिजिटल मार्केटिंग या मूल्य में कहाँ दिखती है, और इसे कैसे दूर किया जा सकता है?
  1. लोकगीतों को बचाने के लिए छात्रवृत्ति/गुरु-शिष्य मॉडल ज़्यादा बेहतर है या स्कूल/कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल करना—कौन सा तरीका ज़्यादा कारगर है?
  1. भोजपुरी/मैथिली सिनेमा के लिए “कंटेंट को साफ-सुथरा करना + थिएटर से ज़्यादा दर्शक जोड़ना + प्रोडक्शन की गुणवत्ता बढ़ाना” कैसे किया जा सकता है?

स्रोत

  • मिथिला/मधुबनी जीआई-टैग: बिहार भवन जीआई दस्तावेज़; जीआई रजिस्ट्री।
  • जीविका (BRLPS) की प्रगति: अध्ययन रिपोर्ट।
  • भोजपुरी अश्लीलता विवाद/उद्योग में सुधार की बहस: मीडिया रिपोर्टें।
  • भोजपुरी की 8वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग: रिपोर्टें।
  • 8वीं अनुसूची और मैथिली को मान्यता: PIB/कानूनी व्याख्या/विकि.
  • लोक कलाओं के लिए केंद्र सरकार की योजनाएं: मंत्रालय/PIB/CCRT/ZCC.



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