नालंदा का जलना: ज्ञान पर सत्ता की भूख का हमला।

ये कोई कहानी नहीं, बल्कि बिहार के इतिहास का एक ऐसा दर्दनाक सच है जो आज भी हमें कचोटता है। बात 12वीं सदी के आखिर की है, जब बख्तियार खिलजी नाम के एक शख्स ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर खाक कर दिया था। ये सिर्फ एक इमारत नहीं जली थी, बल्कि ज्ञान का एक पूरा संसार जल गया था। सवाल ये नहीं है कि 1193 में क्या हुआ, बल्कि ये है कि क्यों हुआ, और इसका हमारे समाज, संस्कृति और राजनीति पर क्या असर पड़ा। आज जब हम बिहार की विरासत और तरक्की की बातें करते हैं, तो नालंदा हमें क्या सबक सिखाती है? ये रिपोर्ट कुछ खोजे हुए तथ्यों, विचारों और कहानियों के साथ उस दर्दनाक मंजर को फिर से दिखाती है, ताकि हम सिर्फ इतिहास को न देखें, बल्कि उससे कुछ सीखें भी।

क्या था नालंदा?

नालंदा, जो राजगीर और बिहार शरीफ के बीच बसा था, सिर्फ एक विश्वविद्यालय नहीं था, बल्कि ये ज्ञान, तपस्या और खोज का एक केंद्र था। ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे यात्रियों ने अपनी यात्राओं में नालंदा के बारे में बहुत कुछ लिखा है। उन्होंने बताया है कि यहां व्याकरण, दर्शन, चिकित्सा, गणित, ज्योतिष और तर्क जैसे कई विषयों की शिक्षा दी जाती थी। हजारों विद्यार्थी और सैकड़ों शिक्षक यहां रहते थे। यहां एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी भी थी, जिसमें बेशकीमती किताबें रखी हुई थीं। ये सब मिलकर नालंदा को बिहार की विरासत का एक अहम हिस्सा बनाते थे।

कब हुई शुरुआत?

नालंदा की शुरुआत गुप्तकाल (5वीं सदी) में हुई थी, लेकिन इसे असली पहचान पाल वंश (8वीं-12वीं सदी) के शासकों ने दी। उन्होंने नालंदा के साथ-साथ विक्रमशिला (भागलपुर), उद्दंडपुर (बिहार शरीफ) और तेलहारा (नालंदा जिला) जैसे कई शिक्षा केंद्रों को भी बढ़ावा दिया। इन संस्थानों में सिर्फ बौद्ध धर्म की ही शिक्षा नहीं दी जाती थी, बल्कि यहां दर्शन और विज्ञान पर भी खुलकर बहस होती थी। पाल राजाओं ने इन संस्थानों को बहुत दान दिया, जमीन दी और इनकी इमारतों की मरम्मत भी करवाई, जिससे ये ज्ञान के केंद्र बने रहे।

कैसे बिगड़े हालात?

12वीं सदी के आखिर में हालात बदलने लगे। पाल वंश का प्रभाव कम होने लगा, जिससे ये शिक्षा केंद्र कमजोर पड़ गए और उन पर हमले होने का खतरा बढ़ गया। सेन वंश का उदय, पूर्वी भारत में सत्ता की होड़ और उत्तर-पश्चिम से आने वाले तुर्की-अफगानी हमलावरों की वजह से माहौल खराब हो गया था। ऐसे में नालंदा जैसे समृद्ध और बिना सुरक्षा वाले विहार हमलावरों के लिए आसान निशाना बन गए।

1193: वो दर्दनाक सच

मोहम्मद गौरी ने दिल्ली के उत्तर में अपनी ताकत बढ़ा ली थी, और उसकी नजर अब बंगाल और बिहार पर थी। वो सीमावर्ती इलाकों में अचानक हमले करता था, जिससे बिहार में डर का माहौल था। उसी दौरान बख्तियार खिलजी नाम के एक सेनापति ने बिहार के किलों, शहरों और विहारों पर तेजी से हमले करना शुरू कर दिया।

कौन था बख्तियार खिलजी?

मिन्हाज-उस-सिराज ने अपनी किताब तबकात-ए-नासिरी में बख्तियार खिलजी को एक तेज, साहसी और बेरहम हमलावर बताया है। वो कम संसाधनों में भी तेजी से हमला करने और लोगों को डराने में माहिर था। उसकी रणनीति ये थी कि वो ऐसे संस्थानों को निशाना बनाता था जो अमीर तो थे, लेकिन उनके पास सुरक्षा के लिए ज्यादा सैनिक नहीं थे। विहारों के पास जमीन, अनाज, लाइब्रेरी और दान में मिली कीमती चीजें होती थीं, लेकिन वो युद्ध के लिए तैयार नहीं थे।

बिहार पर हमला और विहारों का निशाना

खिलजी ने सबसे पहले ओदंतपुरी (बिहार शरीफ) और विक्रमशिला को लूटा और नष्ट कर दिया। ये सिर्फ लूटपाट नहीं थी, बल्कि अपनी ताकत का प्रदर्शन भी था। उसने पुरानी विचारधारा वाले संस्थानों पर हमला करके लोगों को डरा दिया और राजनीतिक संदेश दिया।

नालंदा का विनाश: क्या सच है, क्या झूठ?

तबकात-ए-नासिरी में लिखा है कि खिलजी ने बिहार पर हमला किया, विहारों को नष्ट किया और भिक्षुओं को मार डाला। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ और कुछ बौद्ध ग्रंथों में भी नालंदा और विक्रमशिला जैसे संस्थानों के विनाश का जिक्र है।
ये भी कहा जाता है कि नालंदा की लाइब्रेरी में महीनों तक आग लगी रही। हालांकि, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ये बात बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई है। कुछ पुरातात्विक सबूतों से पता चलता है कि हमले के बाद भी नालंदा में कुछ समय तक पढ़ाई-लिखाई होती रही थी, लेकिन एक बड़े संस्थान के तौर पर ये पूरी तरह से खत्म हो गया था।

नतीजा

नालंदा के विनाश की बात तो सच है, लेकिन इसकी तारीख और कितने समय तक ये चला, इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं।

क्या हुआ इसका असर?

नालंदा के विनाश का असर तुरंत भी हुआ और बाद में भी:

  • भिक्षु भाग गए, कई मारे गए, पांडुलिपियां जल गईं और इमारतें नष्ट हो गईं।
  • ज्ञान का केंद्र खत्म हो गया, पूर्वी भारत में बौद्ध शिक्षा का नेटवर्क टूट गया और बिहार की बौद्धिक ताकत कमजोर हो गई।
  • भारत और तिब्बत के बीच ज्ञान का जो आदान-प्रदान होता था, वो भी रुक गया। तिब्बती परंपराओं में नालंदा परंपरा को याद तो रखा गया, लेकिन उसका केंद्र खो गया।

नालंदा का जलना: भारत के ज्ञान का सबसे बड़ा नुकसान

नालंदा का जलना सिर्फ ईंट और पांडुलिपियों का नाश नहीं था, बल्कि ये 'ज्ञान-संरचना' का विनाश था। उस समय ज्ञान का मतलब था याद रखना, सुनना, बहस करना और कॉपी करना। पांडुलिपियां सिर्फ किताबें नहीं थीं, बल्कि वो पीढ़ियों की मेहनत का नतीजा थीं। बिहार की विरासत के इस अहम हिस्से का विनाश बिहार के इतिहास की सबसे बड़ी बौद्धिक आपदा थी।

पांडुलिपि का महत्व

ताड़ के पत्तों या भोजपत्र पर लिखी गई पांडुलिपियां सालों की मेहनत का नतीजा थीं। उनका नाश 'पुनरुत्पादन-विरोधी' नुकसान था। उन्हें दोबारा लिखना तो मुमकिन था, लेकिन उसी तरह, उसी ज्ञान के साथ नहीं।

बहस का खत्म होना

नालंदा की ताकत बहस और चर्चा की परंपरा थी। जब ये संस्थान टूटा, तो वो मंच भी चला गया जहां विचारों पर बहस होती थी, जिससे सोचने-समझने की शक्ति कमजोर हो गई।

राजनीतिक संदेश

नालंदा पर हमला ये भी बताता है कि सत्ता की लड़ाई में सांस्कृतिक संस्थान भी खतरे में आ सकते हैं। ये ज्ञान और राजनीतिक शक्ति के बीच की कड़वी टक्कर थी, जिसके निशान आज भी हमें दिखाई देते हैं।

कब, कहां, क्यों?

  • कब: 12वीं सदी का आखिरी दशक (लगभग 1193-1200)
  • कहां: वर्तमान नालंदा (राजगीर और बिहार शरीफ के बीच), मगध की धरती पर
  • क्यों: लूटपाट, डर फैलाना और ज्ञान के केंद्रों को खत्म करना, कमजोर सुरक्षा और राजनीतिक अस्थिरता, पुरानी विचारधारा और संस्कृति पर सत्ता का प्रदर्शन।

क्या हुआ इसका असर?

  • राजनीतिक: बिहार में सत्ता बदल गई, विहारों की जमीन और संसाधन बांट दिए गए। डर की वजह से लोगों ने विरोध करना बंद कर दिया, जिससे बंगाल और बिहार पर राज करना आसान हो गया।
  • सामाजिक: शिक्षक और विद्यार्थी बेघर हो गए, स्थानीय अर्थव्यवस्था टूट गई, लोगों में शिक्षा को लेकर गलत भावनाएं पैदा हो गईं।
  • सांस्कृतिक: पांडुलिपियों के नाश से भारतीय ज्ञान का भंडार खाली हो गया, खासकर तर्कशास्त्र, बौद्ध दर्शन और चिकित्सा की परंपराएं खत्म हो गईं। नालंदा परंपरा तिब्बत और पूर्वी हिमालयी बौद्ध जगत में सिर्फ यादों में जिंदा रही।

आज के दौर में क्या सीख मिलती है?

  • विरासत को बचाना बनाम राजनीति: आज जब हम बिहार की विरासत की बात करते हैं, तो ये बहस अक्सर राजनीतिक हो जाती है। नालंदा हमें सिखाती है कि विरासत को राजनीति से ऊपर रखना चाहिए। हमें कानून, बजट और स्थानीय लोगों की मदद से अपने स्मारकों को 'लिविंग हेरिटेज' बनाना चाहिए।
  • नया नालंदा विश्वविद्यालय: 21वीं सदी में नालंदा विश्वविद्यालय को फिर से शुरू करना और नालंदा महाविहार के अवशेषों को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल करना, हमारी यादों को ताजा करने की कोशिश है। ये कदम दिखाता है कि बिहार की तरक्की के लिए ज्ञान और अनुसंधान कितने जरूरी हैं। लेकिन हमें ये भी याद रखना होगा कि आधुनिक संस्थान तभी सफल होंगे जब वो नालंदा की मूल भावना को अपनाएंगे, यानी खुली बहस, अलग-अलग विषयों का ज्ञान और अंतरराष्ट्रीय बातचीत।
  • ज्ञान की सुरक्षा: आज का सबसे बड़ा सबक है डिजिटल संरक्षण, यानी पांडुलिपियों को स्कैन करके सुरक्षित रखना, उनके बारे में जानकारी जुटाना और उन्हें आसानी से उपलब्ध कराना। अगर 12वीं सदी में ऐसा होता, तो इतना नुकसान नहीं होता। आज बिहार की विरासत को बचाने के लिए डिजिटल आर्काइविंग एक अच्छा और सस्ता तरीका हो सकता है।
  • स्थानीय समुदाय: विरासत का संरक्षण तभी सफल होता है जब स्थानीय लोगों को फायदा हो, जैसे रोजगार, पर्यटन, शिल्प और अपनी पहचान पर गर्व। नालंदा के आसपास के सांस्कृतिक स्थलों को जोड़कर पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे लोगों को आर्थिक फायदा भी होगा और वो अपनी संस्कृति को भी समझेंगे।

सच, झूठ और कुछ छिपी हुई बातें

क्या नालंदा महीनों तक जलती रही? ये एक कहानी है, लेकिन सच ये है कि एक बहुत बड़ा ज्ञान का भंडार नष्ट हो गया। क्या ये हमला धर्म की वजह से हुआ था? मध्यकालीन सत्ता की लड़ाइयों में धर्म, दिखावा और लूटपाट, सब कुछ शामिल होता था। नालंदा पर हमला भी ऐसा ही था। क्या नालंदा पहले से कमजोर थी? हां, पाल वंश का साथ छूटने और सुरक्षा की कमी की वजह से नालंदा कमजोर हो गई थी। क्या इसे फिर से बनाना मुमकिन था? उस समय राजनीतिक अस्थिरता और मदद की कमी की वजह से ऐसा नहीं हो सका।

बिहार का इतिहास और विरासत

ये कहानी हमें सिखाती है कि बिहार की विरासत को बचाना सिर्फ हमारी भावना नहीं, बल्कि एक रणनीति होनी चाहिए। हमें कानूनी सुरक्षा, पुरातात्विक अनुसंधान और स्थानीय लोगों की मदद से इसे बचाना होगा। हमें ये भी समझना होगा कि बिहार की तरक्की तभी होगी जब हम नालंदा के सबक को अपनी नीतियों और व्यवहार में शामिल करेंगे।

आज के सबक

  • खतरा: विरासत स्थलों का राजनीतिक इस्तेमाल होना।
  • बचाव: डिजिटल कॉपी, अलग-अलग जगहों पर भंडारण और आसानी से जानकारी उपलब्ध कराना।
  • साझेदारी: सरकार, विश्वविद्यालय, स्थानीय पंचायतें और धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थान मिलकर काम करें, ताकि विरासत राजनीति का शिकार न बने, बल्कि समाज की रक्षा करे।

आखिरी बात

नालंदा का जलना सिर्फ एक दुखद घटना नहीं है, बल्कि ये हमें ये भी सिखाती है कि हमें अपने ज्ञान और संस्कृति को कैसे बचाना है। हमें ज्ञान को फैलाना चाहिए, विरासत को राजनीति से दूर रखना चाहिए और स्थानीय लोगों को इसमें शामिल करना चाहिए। अगर हम ये कर पाए, तो नालंदा का जलना हमारे लिए एक नई शुरुआत हो सकती है, जहां विश्वविद्यालय सिर्फ डिग्री नहीं, बल्कि ज्ञान और समझदारी का निर्माण करते हैं।

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