परिचय
अभी सुबह की धुंध पूरी तरह से छटी भी नहीं है कि भागलपुर के नजदीक कहलगांव के पास अंटीचक के टीले, सूरज की पहली किरण के साथ प्राचीन ईंटों की लालिमा को समेटे हुए हैं। ये जगह इतिहास की कई परतों को अपने अंदर छुपाए हुए है। ये बिहार के इतिहास की एक ऐसी कहानी बताती है जिसके बारे में ज़्यादा बात नहीं हुई है, लेकिन वो बहुत जरुरी है - विक्रमशिला विश्वविद्यालय। ये वही जगह है जिसने आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बिहार की विरासत को शिक्षा, दर्शन और कला के मामले में बहुत आगे पहुंचाया। ये सिर्फ मगध या पाल वंश की ताक़त का प्रतीक नहीं था, बल्कि इसने तिब्बत, बंगाल और दक्षिण-पूर्व एशिया तक ज्ञान की यात्रा को फैलाया।पाल वंश के दौर में शिक्षा और संस्कृति को बढ़ावा मिला। विक्रमशिला और नालंदा दो बड़े केंद्र थे। एक तरफ परंपरा चल रही थी, तो दूसरी तरफ कुछ नया करने की कोशिश की जा रही थी।
विस्तृत पृष्ठभूमि
पाल वंश: ताक़त, संस्कृति और समर्थन
आठवीं शताब्दी में गोपाल ने इसकी शुरुआत की और फिर धर्मपाल व देवपाल जैसे शक्तिशाली शासकों ने पूर्वी भारत (आज का बिहार और बंगाल) में शांति बनाए रखी। पाल वंश ने महायान और वज्रयान बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और कई शिक्षा संस्थानों जैसे नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी, सोमपुर (अब बांग्लादेश) और जगद्दल को सरकारी मदद दी। ये सिर्फ दान नहीं था, बल्कि राज्य की नीति थी। इससे पता चलता है कि बिहार के इतिहास में ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए संस्थाएं कितनी महत्वपूर्ण थीं।
बौद्ध शिक्षा का नज़ारा: पढ़ाई, साधना और बातचीत
गुप्त काल के बाद नालंदा जैसे विश्वविद्यालय, व्याकरण और दर्शन के स्कूल बन गए थे। उसी समय, धर्मपाल (लगभग 8वीं सदी के आखिर में) ने विक्रमशिला महाविहार की स्थापना की। ऐसा माना जाता है कि ये शिक्षा का एक अलग रूप था, जहां वज्रयान (तांत्रिक बौद्ध) की पढ़ाई, तंत्र-साधना और नालंदा के कोर्सेज एक साथ कराए जाते थे।
स्थल और खोज: अंटीचक की धरती के नीचे दबी परतें
भागलपुर जिले के अंटीचक में गंगा के मैदान में स्थित ये पुरातात्विक जगह एक बड़ी चौकोर मोनैस्ट्री है। इसके बीच में एक विशाल स्तूप है और चारों तरफ कमरे, दीवारें और छोटे स्तूप बने हुए हैं। खुदाई में यहां लगभग 208 कमरों वाली एक बड़ी इमारत मिली है, जिससे पता चलता है कि विक्रमशिला में शिक्षा और साधना कितने बड़े पैमाने पर होती थी। यहां मिली मुहरें बताती हैं कि ये जगह विक्रमशिला महाविहार थी, जो पाल युग की प्रशासनिक और सांस्कृतिक झलक दिखाती है।
मुख्य कहानी
स्थापना
कहानियों में कहा गया है कि धर्मपाल ने नालंदा की शिक्षा में गिरावट के चलते विक्रमशिला की स्थापना की। इतिहासकार इस बात को सच नहीं मानते, लेकिन ये साफ़ है कि विक्रमशिला को नालंदा की जगह लेने के लिए नहीं, बल्कि उसकी मदद करने के लिए बनाया गया था। ये बिहार की विरासत का एक नया अध्याय था, जहां पढ़ाई और साधना दोनों को एक साथ किया जाता था।
यहां वज्रयान, योगाचार और तंत्र के साथ-साथ व्याकरण, तर्क और चिकित्सा की भी शिक्षा दी जाती थी।
द्वार-पंडित परंपरा थी, जिसमें सख्त एंट्रेंस एग्जाम होते थे और बहस करके ज्ञान की परख की जाती थी।
विक्रमशिला का मकसद सिर्फ विद्वान बनाना नहीं था, बल्कि ऐसे नेता तैयार करना था जो तिब्बत जैसे देशों में धर्म और संस्कृति का प्रचार कर सकें।
पढ़ाई का तरीका: कोर्सेज, तरीका और अनुशासन
विक्रमशिला के सेंटर में कमरे, लाइब्रेरी और साधना करने की जगहें थीं, जो इसे एक विश्वविद्यालय जैसा बनाती थीं। पढ़ाने के तरीके में तीन चीज़ें खास थीं:
- कोर्स: व्याकरण, तर्क, बौद्ध दर्शन और तंत्र जैसे विषयों की पढ़ाई होती थी।
- साधना: वज्रयान के नियमों का पालन करना, मंत्र जाप करना और ध्यान करना ज़रूरी था।
- बहस: नालंदा की तरह यहां भी बहस होती थी, लेकिन यहां द्वार-परीक्षा होती थी, जिसमें संस्थान के गेट पर ही विचारों को चुनौती दी जाती थी।
टीचर और स्टूडेंट: तिब्बत तक फैला नेटवर्क
विक्रमशिला का असर पूरी दुनिया में था, क्योंकि इसके टीचर और स्टूडेंट दूसरे देशों में जाते थे।
- अतिश दीपंकर श्रीज्ञान (10वीं–11वीं सदी): इन्होंने बंगाल और तिब्बत के बीच पुल का काम किया। इनकी यात्रा से तिब्बत में बौद्ध धर्म में सुधार हुआ। अतिश ने नालंदा और विक्रमशिला दोनों जगहों से शिक्षा हासिल की। ये बिहार के इतिहास की ज्ञान की धारा का उदाहरण है।
- अभयाकरगुप्त: तांत्रिक रीति-रिवाजों और कला पर उनकी किताबों को पाल वंश की संस्कृति का हिस्सा माना जाता है।
- रत्नाकरशांति और वागीश्वरकीर्ति जैसे नाम विक्रमशिला में होने वाली पढ़ाई की गहराई को बताते हैं।
नियम, संगठन और कैंपस का माहौल
- अनुशासन: नियमों का पालन करना, मुश्किल एंट्रेंस एग्जाम और गुरु-शिष्य परंपरा का सख्ती से पालन करना ज़रूरी था। यहां ज्ञान से पहले अनुशासन को महत्व दिया जाता था।
- किताबें: ताड़ के पत्तों पर लिखी पांडुलिपियां बहुत खूबसूरत थीं। ये पाला शैली की पहचान थीं।
- भाषा: संस्कृत, क्षेत्रीय भाषाएं और कई तरह की बोलियां यहां इस्तेमाल होती थीं। विक्रमशिला एक ऐसी जगह थी जहां कई संस्कृतियां एक साथ रहती थीं।
पतन: हमले, आग और राख में दबी यादें
बारहवीं–तेरहवीं सदी में मध्यकालीन राज्यों में बदलाव हुआ और तुर्क-अफ़ग़ान के आक्रमण हुए। इससे पूर्वी भारत के विश्वविद्यालय बर्बाद हो गए। नालंदा और ओदंतपुरी के साथ विक्रमशिला भी जल गया। पांडुलिपियां राख हो गईं, लेकिन ईंटों की दीवारों ने मलबे में भी नक्शे बचाए। ये सिर्फ इमारतों का विनाश नहीं था, बल्कि शिक्षा के दौर का अंत था।
विक्रमशिला बनाम नालंदा
दोनों एक-दूसरे से मुकाबला नहीं करते थे, बल्कि एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करते थे। नालंदा ज्ञान का शहर था, तो विक्रमशिला साधना का विश्वविद्यालय था।
प्रभाव: राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक
राजनीतिक प्रभाव: शिक्षा
पाल वंश ने शिक्षा को ताक़त का जरिया बनाया। विश्वविद्यालय नेटवर्क ने:
- टैक्स और दान को बढ़ावा दिया।
- दूसरे देशों के साथ सांस्कृतिक संबंध बनाए। तिब्बत में अतिश को पाल राज्य का समर्थन मिला।
- ज्ञान की ताक़त को राज-ताक़त के साथ जोड़ा।
सामाजिक असर:
- बौद्ध और हिंदू धर्मों का मिलन हुआ। शिल्पकारों, लेखकों और दानदाताओं की तरक्की हुई।
- ज्ञान सबके लिए था। एंट्रेंस एग्जाम मुश्किल था, लेकिन शिक्षा की कीमत जाति या परिवार पर नहीं, बल्कि योग्यता और अनुशासन पर निर्भर करती थी।
- स्टूडेंट, टीचर, शिल्पकार और व्यापारी - सब मिलकर ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था बनाते थे।
सांस्कृतिक-कला प्रभाव: पाला शैली
- काले पत्थर की मूर्तियाँ, मंडल कला और तांत्रिक चिह्न - ये सब तिब्बत और नेपाल में पाला शैली की पहचान हैं।
- पांडुलिपि-संस्कृति: सुंदर लिखावट, चित्र और बाइंडिंग - ज्ञान को चीज़ और रचना दोनों रूपों में सम्मान मिला।
- आर्किटेक्चर: स्तूप और बड़े विहार - आज भी खंडहरों में देखे जा सकते हैं।
भू-राजनीतिक महत्व: पुल, सुरक्षा और ताक़त
विक्रमशिला–नालंदा–सोमपुर–जगद्दल - ये पाल क्षेत्र को सांस्कृतिक सुरक्षा देते थे। जब युद्ध होते थे, तब भी ज्ञान की भाषा सीमाओं को आसान बना देती थी।
आज का कनेक्शन
विरासत और पहचान: खंडहरों से विश्वविद्यालयों तक
आज बिहार का इतिहास हमें पहचान और मौके दोनों देता है। नालंदा के खंडहरों को विश्व धरोहर का दर्जा मिल चुका है, और विक्रमशिला को भी बचाने की मांग हो रही है। अंटीचक के अवशेष, विक्रमशिला सेतु और कहलगांव मिलकर ज्ञान-सर्किट बना सकते हैं, जिससे राज्य में टूरिज्म बढ़ेगा, रिसर्च सेंटर खुलेंगे और स्थानीय अर्थव्यवस्था में सुधार होगा।
सीख: संस्थाओं को कैसे टिकाऊ बनाया जाए?
- ज्ञान-शासन: विश्वविद्यालयों को सिर्फ डिग्री देने वाली फैक्ट्री नहीं, बल्कि ज्ञान और सामाजिक सुधार का केंद्र बनाना चाहिए।
- अनेकता और खास बातें: नालंदा और विक्रमशिला दोनों ज़रूरी हैं।
- रिकॉर्ड और ओपन एक्सेस: ताड़ के पत्तों की जगह डिजिटल रिकॉर्ड, लेकिन सावधानी ज़रूरी है।
बिहार की क्रांति और बिहार आंदोलन
जब हम बिहार की क्रांति की बात करते हैं, तो हमें 20वीं सदी के आंदोलनों से पहले 8वीं–12वीं सदी की ज्ञान-क्रांति को याद रखना चाहिए। विक्रमशिला और नालंदा की परंपरा ज्ञान का प्रतीक है। इन दोनों को मिलाकर ही बिहार की विरासत को समझा जा सकता है, जहां शिक्षा, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक आत्मविश्वास और आर्थिक अवसर एक साथ हों।
निष्कर्ष
विक्रमशिला की कहानी हमें तीन बातों पर सोचने के लिए मजबूर करती है:
- संस्थान बनाम प्रतीक: विक्रमशिला सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि सोचने का तरीका है, जिसमें मकसद साफ़ हो, क्वालिटी अच्छी हो और दुनिया से कनेक्शन हो।
- खास बातें और बातचीत: नालंदा और विक्रमशिला एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक तरफ ज्ञान का शहर है, तो दूसरी तरफ साधना का विश्वविद्यालय।
- बचाव का नया तरीका: खंडहरों की मरम्मत जितनी ज़रूरी है, उतनी ही ज़रूरी उनकी कहानी को बताना है। विक्रमशिला की कहानी को लोगों तक पहुंचाना ज़रूरी है।
विक्रमशिला पाल वंश की पहचान नहीं, बल्कि बिहार की विरासत का आईना है। ये हमें सिखाता है कि ज्ञान का सही इस्तेमाल सिर्फ इमारतें नहीं, बल्कि विचार और संस्थाएं हैं, जो समाज को सही दिशा दिखाते हैं।
बिहार का इतिहास, बिहार की विरासत और ज्ञान - ये तीनों विक्रमशिला की कहानी को जोड़ते हैं। ये हमें याद दिलाता है कि संस्थाएं तभी ज़िंदा रहती हैं, जब समाज उनके महत्व को समझकर उन्हें अपनाता है। नालंदा और विक्रमशिला दो ध्रुव हैं, लेकिन दोनों एक ही आकाश में चमकते हैं।


