पटना विश्वविद्यालय को केंद्र सरकार के अधीन केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाए जाने की पुरानी मांग एक बार फिर जोर पकड़ रही है। छात्रों, शिक्षाकर्मियों और पूर्व छात्रों ने रविवार को संयुक्त रूप से इसे लेकर आवाज बुलंद की और राज्य तथा केंद्र सरकार से स्पष्ट रोडमैप की मांग की। आगामी चुनावी मौसम में मुद्दे के राजनीतिक मायने बढ़ गए हैं, क्योंकि इसका सीधा असर शैक्षणिक संसाधनों, फंडिंग और राजधानी पटना के युवा मतदाताओं पर पड़ सकता है।
पृष्ठभूमि
पटना विश्वविद्यालय बिहार का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है, जिसकी शैक्षणिक परंपरा और पूर्व छात्रों की सूची इसे खास पहचान देती है। लंबे समय से इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग उठती रही है।
2017 के बाद से यह मुद्दा समय-समय पर सुर्खियों में आया, पर कोई औपचारिक निर्णय नहीं हो सका। बिहार में पहले से महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय (मोतीहारी) और सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ बिहार (गया) संचालित हैं, इसलिए तीसरे केंद्रीय विश्वविद्यालय की मांग नीति-निर्माण के स्तर पर बहस का विषय रही है।
केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने से यूनिवर्सिटी को प्रत्यक्ष केंद्रीय फंडिंग, बेहतर संकाय भर्ती, अनुसंधान अनुदान और राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय सहयोग के अधिक अवसर मिल सकते हैं। इसके साथ ही, भूमि, ढांचे और विनियामक बदलाव की बड़ी जरूरत पड़ती है, जिसके लिए संसद स्तर पर विधायी प्रक्रिया और राज्य-केंद्र समन्वय अनिवार्य होता है।
बयान
- छात्र संगठनों ने कहा कि केंद्रीय दर्जा मिलने से गुणवत्तापूर्ण संकाय, आधुनिक लैब और प्रतिस्पर्धी पाठ्यक्रमों का रास्ता खुलेगा, जिससे बिहार के छात्रों का पलायन कम होगा।
- कई शिक्षाकर्मियों के अनुसार, विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक योगदान, पूर्व छात्रों का नेटवर्क और राजधानी की बुनियादी सुविधाएं इसे राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित करने के पक्ष में मजबूत तर्क हैं।
- सत्ताधारी गठबंधन के नेताओं की ओर से संकेत दिए जा रहे हैं कि राज्य सरकार सकारात्मक है और केंद्र से औपचारिक परामर्श की प्रक्रिया आगे बढ़ाई जा सकती है।
- विपक्षी दलों ने कहा कि यह मुद्दा वर्षों से लंबित है और अब सिर्फ घोषणाओं से काम नहीं चलेगा; सरकार को समयबद्ध खाका, बजट अनुमान और विधायी कदमों की रूपरेखा पेश करनी चाहिए।
- शिक्षा नीति के जानकारों ने सुझाव दिया कि किसी भी अपग्रेडेशन के साथ पारदर्शी शासन-प्रणाली, अकादमिक स्वतंत्रता, NAAC/UGC मानकों के अनुरूप सुधार और सामाजिक समावेशन (आरक्षण व पहुंच) की रूपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए।
प्रतिक्रियाएं
- छात्र-पूर्व छात्र समुदाय में इस मुद्दे को लेकर उत्साह दिखा, जबकि कुछ वर्गों ने आशंका जताई कि लंबे संक्रमणकाल में प्रशासनिक दिक्कतें, भर्ती पर रोक और पाठ्यक्रम समीक्षा में विलंब जैसे प्रश्न खड़े हो सकते हैं।
- उद्योग-व्यापार संगठनों के कुछ प्रतिनिधियों ने राय दी कि उच्च-गुणवत्ता के शोध से पटना में नवाचार-परितंत्र और स्टार्टअप माहौल को बल मिलेगा।
- सोशल मीडिया पर बहस का रुख दो हिस्सों में दिखा—एक ओर केंद्रीय दर्जे के लाभ, दूसरी ओर प्रक्रियागत जटिलताओं और प्राथमिकताओं (ग्रामीण कॉलेजों के सुदृढ़ीकरण बनाम एक बड़े अपग्रेड) पर सवाल।
विश्लेषण
- राजनीतिक असर: यह मुद्दा राजधानी-केंद्रित मध्यमवर्गीय और युवा मतदाताओं में तेजी से गूंजता है। शिक्षा और रोजगार एजेंडा पर फोकस बढ़ने से बिहार के शहरी सीटों में इसका चुनावी महत्व हो सकता है।
- गठबंधन समीकरण: सत्तापक्ष इस मांग को विकास-एजेंडा के रूप में भुना सकता है, बशर्ते केंद्र-राज्य समन्वय का ठोस संकेत दे। विपक्ष इसे वादों बनाम उपलब्धियों के तुलनात्मक विमर्श में उठाएगा।
- जातिगत राजनीति: उच्च शिक्षा से जुड़ा मुद्दा आमतौर पर जाति-आधारित ध्रुवीकरण को सीधा नहीं बढ़ाता, पर सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में आरक्षण, छात्रवृत्ति, और ग्रामीण-शहरी अवसर असमानता जैसे प्रश्नों से अवश्य जुड़ता है। सही संप्रेषण के साथ यह मुद्दा व्यापक सामाजिक गठबंधन को प्रभावित कर सकता है।
- नीतिगत चरण: केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने के लिए केंद्र के शिक्षा मंत्रालय, UGC और संसद की प्रक्रिया आवश्यक है। राज्य का समर्थन, भूमि/इन्फ्रास्ट्रक्चर आवंटन और संक्रमणकालीन शासकीय व्यवस्था (स्टैच्यूट/ऑर्डिनेंस) स्पष्ट हुए बिना गति संभव नहीं।
निष्कर्ष
पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय दर्जा देने की मांग फिर सुर्खियों में है और चुनावी कैलेंडर के मद्देनजर इसका राजनीतिक वजन बढ़ गया है। अगले कदम के तौर पर औपचारिक प्रस्ताव, वित्तीय-प्रशासनिक खाका और केंद्र-राज्य की संयुक्त कार्ययोजना तय करेगी कि यह पहल जमीन पर कब और कैसे उतरती है।

