2025 में तनाव और रिश्ते: जेनरेशन गैप व फैमिली लाइफ

परिचय:

एक 29 साल की कामकाजी महिला बताती है कि काम का प्रेशर, लगातार आने वाले मैसेज और शहर की भागदौड़ में रिश्तों के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल हो गया है। आजकल शहरों में ज़्यादातर लोगों की यही कहानी है। इप्सोस की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, शहरों में रहने वाले हर दो में से एक व्यक्ति ने पिछले साल इतना ज़्यादा स्ट्रेस महसूस किया कि उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर पड़ा। इससे पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य और रिश्तों का मुद्दा अब सिर्फ़ पर्सनल नहीं रहा, बल्कि समाज के लिए भी ज़रूरी हो गया है।
डेलॉइट के 2025 के एक सर्वे में सामने आया कि भारत में 33% जेन Z और 29% मिलेनियल्स ज़्यादातर समय स्ट्रेस या चिंता में रहते हैं। इसका सीधा असर उनके रिश्तों और परिवार में बातचीत पर पड़ता है। वहीं, गैलप के 2024 के वर्कप्लेस डेटा के अनुसार, भारत में 35% लोग रोज़ाना गुस्सा महसूस करते हैं और सिर्फ़ 14% लोग ही खुश हैं। इससे पता चलता है कि रिश्तों की क्वालिटी में कमी आ रही है।

समस्या और ट्रेंड की सच्चाई:

शहरी भारत में 53% लोगों ने माना कि स्ट्रेस की वजह से उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर पड़ा है। 25% लोगों ने कई हफ़्तों तक डिप्रेशन जैसे लक्षण महसूस किए। इससे पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य का कितना ज़्यादा प्रेशर है, जो परिवारों और पार्टनरशिप को भी प्रभावित कर रहा है। डेलॉइट के अनुसार, नौकरी का स्ट्रेस युवाओं के लिए एक बड़ी समस्या है। 36% जेन Z और 39% मिलेनियल्स के लिए काम स्ट्रेस और चिंता का एक बड़ा कारण है। इसकी वजह से रिश्तों में समय, ध्यान और सहानुभूति की कमी हो जाती है, जिससे रिश्तों की क्वालिटी कमज़ोर हो जाती है।
पूरी दुनिया में भी चिंता की समस्या बहुत आम है। WHO के अनुसार, लगभग 4.4% लोग किसी न किसी तरह की चिंता से जूझ रहे हैं। 2021 में 359 मिलियन लोग इससे प्रभावित थे। ये आँकड़े दिखाते हैं कि रिश्तों में इमोशनल प्रेशर हर जगह है।

सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर:

गैलप के 2024 के निष्कर्षों में भारत में खुश रहने वाले लोगों की दर 14% है और 35% लोग रोज़ाना गुस्सा करते हैं। इसकी वजह से घरों में झगड़े, बहस और इमोशनल दूरियाँ बढ़ने की संभावना है। सरकार भी इस बारे में चिंतित है। आर्थिक सर्वे 2023-24 में मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी गई है और बताया गया है कि 2015-16 में 10.6% वयस्क किसी न किसी मानसिक बीमारी से प्रभावित थे। वहीं, 70-92% लोगों को इलाज नहीं मिल पाता है, जिससे परिवार पर बोझ बढ़ जाता है।
NCRB के 2022 के डेटा में 13,000 से ज़्यादा छात्रों ने आत्महत्या की। परीक्षा में फेल होने जैसे कारणों से परिवारों में लंबे समय तक ट्रॉमा, अपराधबोध और बातचीत में कमी आ सकती है।

जेनरेशन गैप या सोच का फ़र्क:

आजकल डेटिंग और रिश्तों को देखने का नज़रिया बदल रहा है। बम्बल की 2024 की ट्रेंड्स रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ़ 23% महिलाएँ शादी को अपना लक्ष्य मानती हैं, जबकि 72% लंबे समय तक चलने वाले रिश्ते की चाह रखती हैं। इसका मतलब है कि कमिटमेंट के साथ-साथ अपनी सीमाओं और मूल्यों पर ध्यान देना ज़रूरी है।
दूसरी ओर, डेलॉइट का कहना है कि युवा सीखना, मेंटरशिप और अपने करियर को आगे बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन मेंटरशिप की कमी और नौकरी से जुड़ी थकान की वजह से रिश्तों के लिए समय और एनर्जी कम हो जाती है। जेंडर के हिसाब से भी बदलाव आ रहा है। एक स्टडी में पाया गया कि भारतीय महिला कर्मचारियों में स्ट्रेस का स्तर (72.2%) पुरुषों (53.6%) से ज़्यादा है। इसकी वजह असमान केयर-वर्क और सुरक्षा से जुड़ी चिंताएँ हैं, जो घर में बातचीत को मुश्किल बना देती हैं।

रिलेशनशिप और फ़ैमिली में मुश्किलें:

  • समय और ध्यान की कमी: रोज़ाना के स्ट्रेस और थकान की वजह से क्वालिटी टाइम कम हो जाता है, जिससे गलतफ़हमियाँ और दूरियाँ बढ़ जाती हैं।
  • डिजिटल ओवरलोड: लगातार आने वाले नोटिफ़िकेशन, स्क्रीन पर ज़्यादा समय बिताना और हमेशा काम में लगे रहने की वजह से इमोशनल तौर पर जुड़ना कम हो जाता है। सर्वे में भी यही बात सामने आई है कि ज़्यादातर लोग रोज़ाना गुस्सा और स्ट्रेस महसूस करते हैं, जिसकी वजह से रिश्तों में बातचीत सिर्फ़ ज़रूरी बातों तक ही सीमित रह जाती है।
  • आर्थिक असुरक्षा और नौकरी बदलने की इच्छा: गैलप 2025 के अनुसार, लगभग 30% भारतीय कर्मचारी रोज़ाना स्ट्रेस महसूस करते हैं और लगभग आधे अपनी नौकरी बदलना चाहते हैं। इससे रिश्तों में स्थिरता कम हो जाती है और परिवार पर अनिश्चितता का प्रेशर बढ़ जाता है।
  • युवाओं पर पढ़ाई का प्रेशर: छात्रों की आत्महत्या के आँकड़े बताते हैं कि पढ़ाई में फेल होने और उम्मीदों का प्रेशर परिवारों में दुख, आरोप-प्रत्यारोप और बातचीत में कमी का कारण बन सकता है।

भारतीय बनाम वैश्विक नज़रिया:

भारत में शहरों में रहने वाले लोगों में मानसिक बीमारी की समस्या गाँवों में रहने वाले लोगों से ज़्यादा है। आर्थिक सर्वे 2023-24 के अनुसार, शहरों में 13.5% लोग मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, जबकि गाँवों में यह आँकड़ा 6.9% है। इससे पता चलता है कि शहरी रिश्तों पर ज़्यादा प्रेशर है। पूरी दुनिया में WHO का कहना है कि चिंता और डिप्रेशन सबसे आम मानसिक बीमारियाँ हैं। 2021 में दुनिया भर में 13% से ज़्यादा लोग मानसिक बीमारियों से जूझ रहे थे, जिसका असर परिवारों और रिश्तों पर पड़ रहा है। बम्बल के आँकड़ों से पता चलता है कि युवा अब परफेक्शन के पीछे नहीं भाग रहे हैं, बल्कि अपनी मान्यताओं, ईमानदारी और सीमाओं को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं, जिससे रिश्ते कम पारंपरिक लेकिन ज़्यादा बातचीत पर आधारित हो रहे हैं।

रियल लाइफ़ केस (एक काल्पनिक उदाहरण):

नेहा (28 साल, प्रोडक्ट मार्केटिंग) और रवि (31 साल, सॉफ़्टवेयर)—दोनों हफ़्ते के दिनों में देर तक काम करते हैं और घर लौटकर अक्सर थके हुए होते हैं। इसलिए उनकी बातचीत सिर्फ़ ज़रूरी कामों तक ही सीमित रह जाती है और इमोशनल जुड़ाव कम हो जाता है। ये आजकल के शहरों में स्ट्रेस और गुस्से की वजह से होने वाली परेशानियों को दिखाता है।
इन दोनों ने हफ़्ते में एक बार डिजिटल-सब्बैथ (जिसमें वे डिजिटल चीज़ों से दूर रहते हैं) और 20 मिनट की चेक-इन बातचीत शुरू की। इसमें वे काम से जुड़े स्ट्रेस के बारे में बात करते थे, एक-दूसरे से उम्मीदों के बारे में बताते थे और महीने में एक बार बिना किसी एजेंडा के डेट पर जाते थे। इससे नाराज़गी कम हुई और एक-दूसरे को समझने में मदद मिली। उन्होंने ऑफ़िस में मेंटरशिप भी माँगी, काम की सीमा तय की और हफ़्ते के दिनों में सोने से पहले स्क्रीन से दूर रहने का फ़ैसला किया। इससे उन्हें काफ़ी फ़ायदा हुआ।

पॉज़िटिव और नेगेटिव बातें:

  • पॉज़िटिव: रिश्तों को लेकर लोगों का नज़रिया बदल रहा है। अब लोग ईमानदारी, सीमाओं और अपनी मान्यताओं को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं, जिससे रिश्ते ज़्यादा मज़बूत हो रहे हैं।
  • पॉज़िटिव: युवा आजकल नई चीज़ें सीखने और मेंटरशिप पाने पर ध्यान दे रहे हैं, जिससे लंबे समय में उन्हें आर्थिक और नौकरी से जुड़ी स्थिरता मिलेगी और रिश्तों में सुरक्षा की भावना बढ़ेगी।
  • नेगेटिव: बहुत कम लोग खुश हैं और ज़्यादातर लोग रोज़ाना गुस्सा और स्ट्रेस महसूस करते हैं, जिसकी वजह से घरों में झगड़े और बहसें बढ़ रही हैं।
  • नेगेटिव: ज़्यादातर लोगों को समय पर इलाज नहीं मिल पाता है, जिससे समस्या और बढ़ जाती है।

समाधान, टिप्स और एक्सपर्ट्स की राय:

  • छोटे-छोटे बदलावों से शुरुआत करें: हफ़्ते में एक बार बातचीत-सत्र तय करें। 15-20 मिनट तक बिना फ़ोन के सिर्फ़ एक-दूसरे की बात सुनें और सवाल पूछें। आप फीलिंग्स-फ़ैक्ट्स-नीड्स का फ़ॉर्मैट भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • डिजिटल सीमाएँ तय करें: सोने से 60 मिनट पहले स्क्रीन से दूर रहें, बेडरूम में काम न करें और सोशल मीडिया पर ज़्यादा समय न बिताएँ। हफ़्ते में एक बार डिजिटल-सब्बैथ ज़रूर करें। इससे रिश्तों में जुड़ाव बढ़ेगा।
  • वर्क-लाइफ़ बाउंड्रीज़ बनाएँ: काम के प्रेशर से बचने के लिए ऑफ़िस में मेंटरशिप माँगें, अपने वर्कलोड के बारे में बात करें और नई चीज़ें सीखें।
  • जेंडर का ध्यान रखें: महिला कर्मचारियों में स्ट्रेस ज़्यादा होता है, इसलिए घर के कामों में उनकी मदद करें, उनकी सुरक्षा का ध्यान रखें और ऐसी नीतियाँ बनाएँ जो उनके लिए आसान हों।
  • कब मदद लें: अगर आपको लगातार उदासी या चिंता हो रही है, नींद या भूख में बदलाव हो रहा है या झगड़े ज़्यादा हो रहे हैं, तो किसी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से सलाह लें। WHO चिंता के लिए मनोवैज्ञानिक थेरेपी और स्व-सहायता तकनीकों की सलाह देता है।
  • सिस्टम में बदलाव: आर्थिक सर्वे के अनुसार, ज़्यादातर लोगों को इलाज नहीं मिल पाता है, इसलिए फ़ैमिली डॉक्टर, स्कूल काउंसलर और कर्मचारी सहायता कार्यक्रम तक पहुँच आसान बनाएँ।
  • ऑर्गनाइज़ेशन के लिए: गैलप और डेलॉइट बताते हैं कि एंगेजमेंट, मेंटरशिप और वेलबीइंग पर ध्यान देने वाली नीतियाँ न सिर्फ़ काम को बेहतर बनाती हैं, बल्कि कर्मचारियों के फ़ैमिली लाइफ़ को भी बेहतर बनाती हैं।
  • रिलेशनशिप को प्राथमिकता दें: बम्बल ट्रेंड्स के अनुसार, अपनी सीमाओं और मूल्यों को साफ़ करें। फ़ाइनेंस, समय, डिजिटल चीज़ों और परिवार से जुड़ी उम्मीदों पर खुलकर बात करें।

भारतीय और वैश्विक डेटा:

  • 53% शहरी भारतीयों ने कहा कि स्ट्रेस की वजह से उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर पड़ा। 25% ने लंबे समय तक डिप्रेशन जैसे लक्षण महसूस किए।
  • भारत में 14% लोग खुश हैं, 35% रोज़ाना गुस्सा और 32% रोज़ाना स्ट्रेस महसूस करते हैं।
  • 33% जेन Z और 29% मिलेनियल्स ज़्यादातर समय स्ट्रेस या चिंता में रहते हैं। काम इसका एक बड़ा कारण है।
  • WHO के अनुसार, दुनिया भर में 4.4% लोग चिंता से जूझ रहे हैं। 2021 में 359 मिलियन लोग इससे प्रभावित थे।
  • बम्बल के अनुसार, 23% महिलाएँ शादी करना चाहती हैं, 72% लंबे समय तक चलने वाले रिश्ते की तलाश में हैं।
  • महिला कर्मचारियों में स्ट्रेस का स्तर पुरुषों से ज़्यादा है (72.2% बनाम 53.6%)।
  • 70-92% लोगों को इलाज नहीं मिल पाता है। शहरों में मानसिक बीमारी ज़्यादा है।
  • 2022 में 13,000 से ज़्यादा छात्रों ने आत्महत्या की। परीक्षा में फेल होना एक बड़ा कारण था।


भारतीय बनाम वैश्विक समाधान:

WHO की गाइडेंस के अनुसार, चिंता और डिप्रेशन के लिए मनोचिकित्सा, स्व-सहायता और सामाजिक समर्थन ज़रूरी हैं। भारत में इन्हें स्वास्थ्य सेवाओं और कर्मचारी सहायता कार्यक्रमों से जोड़ा जा सकता है। सरकार को भी स्कूल, ऑफ़िस और आत्महत्या रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। बम्बल और डेलॉइट के निष्कर्षों से पता चलता है कि सीमाएँ, ईमानदारी, मेंटरशिप और सीखने की संस्कृति रिश्तों को मज़बूत बना सकती हैं।

नए ज़माने के रिश्तों के लिए आसान टिप्स:

  • साप्ताहिक चेक-इन टेम्पलेट: इस हफ़्ते का सबसे बड़ा स्ट्रेस, पार्टनर से एक उम्मीद, एक आभार—तीन सवाल, 15 मिनट, बिना फ़ोन के।
  • वैल्यूज़-मैप बनाएँ: अपनी टॉप 5 वैल्यूज़ (जैसे भरोसा, आज़ादी, फ़ैमिली टाइम) तय करें और उनसे जुड़े व्यवहार तय करें। झगड़े होने पर इन्हीं वैल्यूज़ पर वापस जाएँ।
  • घर के लिए वर्क-एग्रीमेंट बनाएँ: ऑफ़िस कॉल्स की समय-सीमा, हफ़्ते में एक दिन काम न करना और महीने में एक छुट्टी—छोटे नियम, बड़ा असर।
  • कलेक्टिव केयर रूटीन: नींद, खाना, एक्सरसाइज़ और माइंडफुल ब्रेक्स—जोड़े साथ मिलकर छोटे-छोटे बदलाव करें ताकि इमोशनल तौर पर मज़बूत रहें।
  • हेल्प-सीकिंग संकेत: लगातार बेचैनी, नींद की समस्या या बार-बार झगड़े—मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ या EAP की मदद लें।

नौकरी और परिवार के बीच बैलेंस:

गैलप 2025 के अनुसार, लगभग आधे भारतीय कर्मचारी नौकरी बदलना चाहते हैं। इसका मतलब है कि नौकरी में मतलब, मेंटरशिप और वेलबीइंग के ऑप्शन्स रिश्तों को बचाने के लिए ज़रूरी हो गए हैं। डेलॉइट की बातों को ध्यान में रखें तो नई चीज़ें सीखने और मेंटरशिप की कमी की वजह से लोगों के पास समय और एनर्जी कम होती है। इसलिए घर में बातचीत के लिए समय निकालना ज़रूरी है। भारत में खुश रहने वाले लोगों की संख्या कम है, इसलिए छोटे-छोटे बदलाव और सीमाएँ तय करना रिश्तों में धैर्य और सहयोग को वापस लाने का एक अच्छा तरीका है।

नारी और पुरुष के अनुभव में फ़र्क:

महिलाओं में काम का स्ट्रेस ज़्यादा होता है, इसलिए घर के कामों में उनकी मदद करना, उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना और उन्हें सपोर्ट सिस्टम देना ज़रूरी है। घर और ऑफ़िस दोनों में महिलाओं के लिए खास नीतियाँ बनाने से रिश्तों की क्वालिटी बेहतर होती है। बम्बल के डेटा में महिलाओं का अपनी शर्तों पर जीने और ईमानदारी पर ज़ोर देना दिखाता है कि रिश्तों में बराबरी और साफ़ उम्मीदें रखना ज़रूरी है। जब ज़्यादातर लोगों को इलाज नहीं मिल पाता है, तो महिलाओं के लिए काउंसलिंग, EAP और समुदाय-आधारित सहयोग समूह रिश्तों में उनकी आवाज़ और सुरक्षा को बढ़ाने का एक अच्छा तरीका हो सकता है।

नया परिवार और पेरेंटिंग:

NCRB के छात्रों की आत्महत्या के आँकड़े और आर्थिक सर्वे की किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बातें मिलकर पढ़ाई का प्रेशर और सोशल मीडिया पर दूसरों से तुलना करने को परिवारों के लिए बातचीत का एक ज़रूरी विषय बनाती हैं। स्कूल और माता-पिता को मिलकर बच्चों की मदद करनी चाहिए। WHO के अनुसार, चिंता और डिप्रेशन के लिए स्कूल में प्रिवेंशन प्रोग्राम और स्व-सहायता कार्यक्रम मददगार होते हैं। घर में भी बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना, उन्हें अपनी भावनाओं को समझने में मदद करना और उनसे ज़्यादा उम्मीदें न रखना ज़रूरी है। जैसे-जैसे युवाओं की रिश्ते को लेकर उम्मीदें बदल रही हैं, माता-पिता को अपनी मान्यताओं के बारे में उनसे बात करनी चाहिए और उन्हें सही रास्ता दिखाना चाहिए।


निष्कर्ष:

भविष्य में रिश्तों को बेहतर बनाने के लिए उन्हें अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाना ज़रूरी है। डेटा बताता है कि स्ट्रेस, गुस्सा और असुरक्षा बढ़ रही है, लेकिन सीमाएँ तय करके, मेंटरशिप लेकर और अपनी मान्यताओं के आधार पर बातचीत करके इन्हें कम किया जा सकता है। याद रखें कि छोटे-छोटे बदलाव, साफ़ सीमाएँ और समय पर मदद मिलकर रिश्तों को मज़बूत बनाते हैं। आज एक छोटा कदम उठाने से कल आपको एक मज़बूत रिश्ता मिलेगा।

Raviopedia

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