पटना हाईकोर्ट ने पूछा– बिहार में ऑब्जर्वेशन होम क्यों नहीं?

पटना हाई कोर्ट ने बिहार सरकार के समाज कल्याण विभाग से एक गंभीर सवाल पूछा है। कोर्ट जानना चाहती है कि आखिर क्यों राज्य के कई जिलों में किशोर न्याय अधिनियम (Juvenile Justice Act) के तहत ज़रूरी ऑब्जर्वेशन होम अभी तक नहीं बनाए गए हैं। कोर्ट ने विभाग को यह भी बताने को कहा है कि इस मामले में अब तक क्या काम हुआ है, आगे क्या योजना है, और किसकी क्या ज़िम्मेदारी है। हाल ही में हुई सुनवाई में कोर्ट ने यह भी पूछा कि बच्चों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी बुनियादी ढाँचे की कमी को लेकर सरकार कितनी तैयार है और इसके लिए बजट में कितना पैसा दिया गया है।

मामला क्या है?

  • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के अनुसार, बच्चों से जुड़े मामलों में ऑब्जर्वेशन होम, स्पेशल होम, शेल्टर होम और दूसरे बाल देखभाल संस्थान होने चाहिए।
  • ऑब्जर्वेशन होम उन बच्चों के लिए बनाए जाते हैं जो किसी अपराध में शामिल होते हैं और उनका मामला जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में चल रहा होता है। ये होम बच्चों के लिए अस्थायी ठिकाना होते हैं।
  • बिहार में बाल संरक्षण के ढांचे को केंद्र सरकार की 'मिशन वात्सल्य' योजना से मदद मिलती है। लेकिन, लंबे समय से यह देखा जा रहा है कि जिलों में बुनियादी ढाँचे, कर्मचारियों और निगरानी की कमी है।

कोर्ट ने क्या कहा?

  • कोर्ट ने समाज कल्याण विभाग को हर जिले की स्थिति बताने को कहा है। विभाग को यह जानकारी देनी है कि कितने संस्थान स्वीकृत हैं और कितने काम कर रहे हैं, कितने पद खाली हैं, और निर्माण या सुधार का काम कब तक पूरा हो जाएगा।
  • बाल अधिकार विशेषज्ञों का कहना है कि ऑब्जर्वेशन होम की कमी से बच्चों के मामलों में समय पर पुनर्वास, काउंसलिंग और कानूनी प्रक्रिया में दिक्कत आती है। इससे किशोर न्याय अधिनियम का मकसद पूरा नहीं हो पाता।
  • सरकारी सूत्रों के अनुसार, कई जिलों में ज़मीन, बिल्डिंग के नियम, स्टाफ की भर्ती और सुरक्षा से जुड़े काम अटके हुए हैं, जिसकी वजह से देरी हो रही है। विभाग की तरफ से आधिकारिक जवाब आने पर जानकारी अपडेट कर दी जाएगी।

इस पर क्या प्रतिक्रियाएँ आईं?

विपक्ष ने इसे सरकार की लापरवाही बताते हुए कहा है कि बाल सुरक्षा ढांचे में कमी से कानून-व्यवस्था और जनकल्याणकारी योजनाओं पर सवाल उठता है।
वहीं, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं का कहना है कि बजट, नियमों और मानकों के अनुसार काम धीरे-धीरे चल रहा है और कोर्ट के निर्देश के अनुसार आगे की योजना पेश की जाएगी।
सामाजिक संगठनों ने कोर्ट के इस कदम का स्वागत किया है और स्वतंत्र ऑडिट, नियमित निरीक्षण और बच्चों को मनोवैज्ञानिक मदद देने की मांग की है।

इसका क्या मतलब है?

बाल गृहों की कमी पर कोर्ट का दखल सरकार की क्षमता, प्राथमिकताएँ और कल्याणकारी ढांचे पर सवाल उठाता है। इससे सुशासन बनाम प्रशासनिक उदासीनता की बहस तेज़ हो सकती है। शहरी मतदाताओं, युवाओं और महिलाओं के बीच सरकार की छवि पर असर पड़ सकता है।
जाति के आधार पर इसका सीधा असर शायद न हो, लेकिन गरीब, प्रवासी और पिछड़े समुदायों में बाल संरक्षण और न्याय से जुड़ी चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
अगर सरकार समय पर योजना बनाती है, पारदर्शी तरीके से भर्ती करती है और स्वतंत्र जाँच कराती है, तो विपक्ष के हमलों को कम किया जा सकता है। नहीं तो, यह मुद्दा सरकार की प्रशासनिक कमी का प्रतीक बन सकता है।

निष्कर्ष

पटना हाई कोर्ट के निर्देश ने बिहार में किशोर न्याय अधिनियम के पालन और बाल सुरक्षा ढांचे की असलियत पर सरकार से जवाब माँगा है। अब यह देखना होगा कि सरकार जिलेवार योजना, समयसीमा और स्वतंत्र निगरानी तंत्र कब तक पेश करती है।

Raviopedia

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