कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने हिंसा का रास्ता छोड़कर धम्म (धर्म) को अपनाया। उन्होंने शांति, भाईचारे और जनकल्याण की नीतियाँ शुरू कीं, जिनका असर पूरी दुनिया पर हुआ। इसकी शुरुआत बिहार के पाटलिपुत्र शहर से हुई थी।
प्रस्तावना:
सम्राट अशोक के जीवन में कलिंग युद्ध एक बड़ा बदलाव लेकर आया। उन्होंने युद्ध छोड़कर धम्म का रास्ता अपनाया। यह घटना भारतीय इतिहास में बहुत खास है। पाटलिपुत्र (आज का पटना) से शुरू हुई उनकी नीतियाँ न सिर्फ बिहार के इतिहास का हिस्सा हैं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए मिसाल हैं। अशोक के शिलालेखों में पश्चाताप, अहिंसा और जनकल्याण की बातें लिखी हैं। ये बातें आज भी शांति की राजनीति और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रेरणा देती हैं। बिहार के आंदोलनों और भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति में भी इनकी गूंज सुनाई देती है।
पृष्ठभूमि:
राजनीतिक और सामाजिक माहौल
पाटलिपुत्र (पटना), मौर्य साम्राज्य की राजधानी थी। यहीं से चंद्रगुप्त और अशोक जैसे शासकों ने पूरे भारत पर शासन किया। अशोक के राज्याभिषेक के आठ साल बाद कलिंग पर हमला किया गया। यह हमला साम्राज्य को बढ़ाने के लिए था। अशोक के शिलालेखों में शासन के बारे में बहुत कुछ लिखा है। उस समय समाज में कई तरह के लोग रहते थे, और प्रशासन को सभी को साथ लेकर चलना था। अशोक के धम्म के विचार में इसकी झलक मिलती है।
आर्थिक और रणनीतिक कारण
कलिंग (ओडिशा) समुद्र के किनारे था। यहाँ से व्यापार करना आसान था। यहाँ धातु और समुद्री रास्ते भी थे। इसलिए यह जगह बहुत महत्वपूर्ण थी। मौर्य साम्राज्य को दक्षिण-पूर्वी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए भी कलिंग पर नियंत्रण रखना जरूरी था। अशोक के शिलालेखों में कलिंग को अविजित देश कहा गया है। इस युद्ध में बहुत से लोग मारे गए, घायल हुए और बेघर हो गए। इस घटना ने अशोक को अंदर तक हिला दिया। इसी के बाद उन्होंने अपनी नीतियाँ बदल दीं।
वैचारिक प्रभाव और व्यक्तित्व
अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि वे पहले से ही बौद्ध धर्म को मानते थे। लेकिन कलिंग युद्ध के बाद उनका झुकाव धम्म की ओर और भी बढ़ गया। बौद्ध धर्म के अनुसार, पाटलिपुत्र में ही तीसरी बौद्ध संगीति हुई थी। यहीं से धम्म का संदेश पूरे भारत और विदेशों में फैलाया गया।
कलिंग युद्ध और निर्णायक मोड़
क्या हुआ
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में कलिंग पर हमला किया। शिलालेख XIII के अनुसार, इस युद्ध में एक लाख लोग मारे गए, डेढ़ लाख लोग बेघर हो गए, और इससे भी ज़्यादा लोग दूसरे कारणों से मर गए। यह उस समय की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक थी। युद्ध जीतने के बाद अशोक ने कहा कि उन्हें इस बात का बहुत दुख है कि कलिंग में इतने सारे लोग मारे गए और घायल हुए। इसी पश्चाताप ने उनके जीवन को बदल दिया। अब उन्होंने सोचा कि युद्ध के नगाड़ों की आवाज़ की जगह धम्म का संदेश फैलाना चाहिए। उन्होंने कहा कि धम्म का पालन करने से इस दुनिया और दूसरी दुनिया दोनों में फायदा होता है।
बदलाव: हिंसा से धम्म
अशोक ने शिलालेख XIII में लिखवाया कि सबसे अच्छी जीत धम्म की जीत है। उन्होंने यह संदेश न सिर्फ अपनी सीमाओं के भीतर, बल्कि यूनानी राजाओं (एंटियोकस, टॉलेमी, एंटीगोनस, मागस और अलेक्ज़ेंडर) तक भी पहुँचाया। इसका मतलब है कि पाटलिपुत्र से शुरू हुई शांति की राजनीति पूरी दुनिया में फैल गई। यह बदलाव सिर्फ कहने की बात नहीं थी। अशोक ने न्याय व्यवस्था, दंड के नियमों और प्रशासन में भी बदलाव किए। उन्होंने कैदियों को फांसी से पहले तीन दिन का समय देने और अधिकारियों को नियमित रूप से निरीक्षण करने के आदेश दिए।
असर
बिहार और भारत पर
अशोक ने पशु बलि और जानवरों पर क्रूरता पर रोक लगा दी। उन्होंने लोगों के लिए सड़कों के किनारे पेड़ लगवाए, कुएँ खुदवाए और मनुष्यों और जानवरों दोनों के लिए चिकित्सा की व्यवस्था की। ये सभी काम दिखाते हैं कि वे लोगों का कितना ध्यान रखते थे। पाटलिपुत्र बिहार की राजधानी थी, इसलिए ये नीतियाँ यहीं से लागू हुईं। धम्म महामात्रों (धर्म के प्रचारक) को नियुक्त किया गया। इनका काम था कि सभी धर्मों के लोग शांति से रहें, कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाए और समाज में एकता बनी रहे।
दूरगामी असर
अशोक के धम्म ने सभी धर्मों को समान रूप से मानने, शांति से रहने और एक-दूसरे का सम्मान करने की बात कही। इससे समाज में सद्भाव और भाईचारा बढ़ा। सड़कें, कुएँ, औषधीय पौधे और विश्राम गृह बनवाए गए, जिससे व्यापार और यात्रा करना आसान हो गया। तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में हुई। यहाँ से श्रीलंका तक धर्म के प्रचारक भेजे गए। इससे बौद्ध धर्म एशिया के कई देशों में फैल गया।
आज के लिए सीख
अशोक का जीवन हमें बताता है कि सरकार का काम लोगों की भलाई करना, नैतिकता का पालन करना और धम्म के अनुसार शासन करना होना चाहिए। यह संदेश आज भी हमारे लिए बहुत ज़रूरी है, खासकर ऐसे समय में जब हिंसा और अशांति फैली हुई है। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता पर ज़ोर दिया और कहा कि हमें अपनी परंपराओं पर गर्व करना चाहिए, लेकिन दूसरों की अच्छी बातों को भी सीखना चाहिए।
लोगों की राय
अशोक के शिलालेख भारत, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक फैले हुए हैं। ये शिलालेख उनकी व्यक्तिगत और ईमानदार शैली में लिखे गए हैं। बौद्ध धर्म के ग्रंथों में अशोक को एक क्रूर शासक से एक धर्मात्मा शासक बनने की कहानी बताई गई है। इतिहासकारों का कहना है कि पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीति हुई और यहीं से धर्म के प्रचारक विदेशों में भेजे गए। बिहार में लौरिया नंदनगढ़ और लौरिया अरेराज जैसे अशोक स्तंभ आज भी मौजूद हैं। ये स्तंभ धम्म के संदेश की याद दिलाते हैं।
पाटलिपुत्र से दुनिया तक
अशोक के शिलालेख XIII में कहा गया है कि धम्म की जीत यूनानी राजाओं (एंटियोकस, टॉलेमी, एंटीगोनस, मागस और अलेक्ज़ेंडर) तक पहुँची। यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक उदाहरण है। पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीति हुई और श्रीलंका में धर्म का प्रचार किया गया। इससे बिहार का महत्व बढ़ गया।
स्थल-साक्ष्य: बिहार के अशोक स्तंभ
लौरिया नंदनगढ़ का अशोक स्तंभ और स्तूप बिहार में अशोक के धम्म के संदेश की निशानी हैं। लौरिया अरेराज का स्तंभ भी पूर्वी चंपारण में है। ये स्तंभ बिहार के मौर्य काल की याद दिलाते हैं।
आज के बिहार और भारत के लिए सबक
धर्मों का सम्मान करना, शांति से बोलना और दूसरे धर्मों की अच्छी बातों का सम्मान करना शिक्षा, मीडिया और समाज के लिए बहुत ज़रूरी है। न्याय व्यवस्था में दया दिखाना, कैदियों को फांसी से पहले समय देना और नियमित रूप से जेलों का निरीक्षण करना आज भी ज़रूरी है। अशोक ने स्वास्थ्य, पशु संरक्षण और पर्यावरण को महत्व दिया। ये बातें आज भी बिहार के विकास के लिए ज़रूरी हैं।
निष्कर्ष
कलिंग युद्ध के बाद अशोक का बदलाव हमें बताता है कि सच्ची जीत सीमाओं पर नहीं, बल्कि लोगों के दिलों में होती है। पाटलिपुत्र से शुरू हुआ यह संदेश आज भी दुनिया को बेहतर शासन करने की प्रेरणा देता है। क्या आज की सरकारें फिर से उस आदर्श को अपना सकती हैं, जहाँ लोगों की भलाई, सहनशीलता और धम्म पर आधारित नीतियाँ हों?
विश्लेषण
- नीति के स्तर पर: अशोक का धम्म (धर्मों का सम्मान, शांति, न्याय और स्वास्थ्य) आज भी बिहार और भारत के लिए ज़रूरी है।
- संस्कृति के स्तर पर: पाटलिपुत्र से तीसरी संगीति और विदेशों में धर्म के प्रचार से बिहार का महत्व बढ़ा।
- स्मृति के स्तर पर: लौरिया नंदनगढ़/अरेराज जैसे स्तंभ हमें इतिहास से जोड़ते हैं और बताते हैं कि हमें अपने समाज के लिए क्या करना चाहिए।


