महिला सुरक्षा और अधिकार: अपराध दर, कानून व्यवस्था और सामाजिक दृष्टिकोण पर बिहार और भारत की जाँच

बिहार सहित भारत की महिला सुरक्षा की स्थिति, कानूनों की हकीकत, जमीनी सच्चाई, और सामाजिक मानसिकता की गहराई से पड़ताल।

 एक नई सुबह की तलाश

एक छोटे शहर में रात गहरा रही थी, सड़कें सुनसान थीं, और एक युवती तेज़ी से कदम बढ़ा रही थी। उसके मन में डर था, आँखों में चिंता, और हर छोटी सी आहट पर उसकी धड़कनें तेज़ हो रही थीं। क्या आज़ाद भारत में महिलाओं की सुरक्षा बस एक सपना बनकर रह जाएगी? 'नारी 2025' रिपोर्ट की एक सच्ची कहानी सामने आई है, जो देश के करोड़ों परिवारों की रातों की नींद उड़ा सकती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, 40% महिलाएं खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। सरकारें नए कानून बनाने और पुलिस को सख्त करने की बातें करती हैं, लेकिन क्या महिलाओं की सुरक्षा अभी भी एक दूर का सपना है?

अतीत के पन्ने

भारतीय समाज में महिलाओं को वैदिक काल में पुरुषों के बराबर माना जाता था, पर धीरे-धीरे उनकी स्थिति कमज़ोर होती गई। 19वीं सदी में, राजा राम मोहन राय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों ने सती प्रथा और बाल विवाह जैसी बुराइयों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई, और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाए। आज़ादी की लड़ाई में सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गांधी, और लक्ष्मी सहगल जैसी महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और समाज को नई दिशा दी। आज़ादी मिलने के बाद, महिलाओं को संविधान में अधिकार तो मिले, पर सामाजिक मुश्किलें बनी रहीं। फिर दहेज, घरेलू हिंसा, और कार्यस्थल पर होने वाले गलत व्यवहार जैसे मुद्दे सामने आए, जिनके लिए सरकार ने दहेज निषेध अधिनियम (1961), घरेलू हिंसा से सुरक्षा अधिनियम (2005), और POSH एक्ट (2013) जैसे कानून बनाए।

आज का सच

2024-25 के नए आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4,45,256 मामले दर्ज हुए, जो 2018 से लगभग 18% ज़्यादा हैं। अगर हम बिहार की बात करें, तो हर दिन औसतन तीन बलात्कार, 18 से ज़्यादा अपहरण, और 2 दहेज हत्या के मामले सामने आते हैं। साल 2025 में, जनवरी से अगस्त के बीच राज्य की पुलिस ने 464 अपराधियों को सजा दिलाई, जिनमें बलात्कार, POCSO एक्ट के तहत अपराध, और दहेज हत्या जैसे गंभीर मामले शामिल थे।
'नारी 2025' रिपोर्ट के अनुसार, पटना जैसे शहर देश के सबसे असुरक्षित शहरों में से एक हैं। पटना में रहने वाली एक छात्रा ने बातचीत में कहा, रात 8 बजे के बाद घर से बाहर निकलने में डर लगता है, चाहे पुलिस स्टेशन पास में ही क्यों न हो।
एक वकील, अदिति सिंह, कानूनी व्यवस्था पर बात करते हुए कहती हैं, कानून तो सख्‍त हैं, लेकिन उन्हें ज़मीन पर लागू करने में भ्रष्टाचार, राजनैतिक दबाव, और सामाजिक भेदभाव जैसी बड़ी मुश्किलें हैं। बिहार पुलिस मुख्यालय के एक अधिकारी का कहना है, हमने मामलों में तेज़ी से कार्रवाई की है, और दोषियों को एक साल से भी कम समय में सजा दिलाई है। लेकिन एक फील्ड रिपोर्टर ने जब पीड़ितों से बात की, तो उन्होंने बताया कि पुलिस रिपोर्ट लिखने से पहले उनसे कई सवाल पूछे जाते हैं, उन पर दबाव डाला जाता है, और समझौता करने की सलाह दी जाती है।

सामाजिक नज़रिया

भारत में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर समाज का नज़रिया एक मुश्किल सवाल है। आज भी पुरुषों का दबदबा है, 'इज्जत' के नाम पर महिलाओं को चुप करा दिया जाता है, और कई बार समाज खुद ही पीड़ित को दोषी ठहराता है। 'नारी 2025' रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि महिलाओं को सबसे ज़्यादा डर रात के समय, खराब रोशनी वाली सड़कों पर, और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लगता है।
बिहार के पूर्णिया जिले की सुनीता देवी नाम की एक महिला कहती हैं, कानून और कोर्ट तो शहरों की बातें हैं। गांव में पंचायत और परिवार ही सब कुछ तय करते हैं, और अक्सर महिला की चुप्पी ही उसके हक का फैसला बन जाती है।

 बिहार और दूसरे राज्य: आंकड़े, नीतियां, और सच्चाई

बिहार में महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर देश के औसत से ज्यादा है। राज्य सरकार दावा करती है कि उसने पुलिस व्यवस्था को बेहतर किया है, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए हैं, और महिलाओं के लिए 'नारी शहरी बस सेवा' जैसी योजनाएं चलाई हैं, पर पटना और रांची जैसे बड़े शहर अब भी सबसे असुरक्षित माने जाते हैं। उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों को निपटाने की दर सबसे ज़्यादा (98.6%) है, क्योंकि वहां महिलाओं के लिए अलग पुलिस स्टेशन बनाए गए हैं, फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं, और CCTV जैसी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। सिक्किम, गोवा, और मिजोरम जैसे छोटे राज्यों को लगातार सबसे सुरक्षित माना जाता है। अगर हम दुनिया के दूसरे देशों से तुलना करें, तो पता चलता है कि यूरोप के देशों से सीखा जा सकता है कि कैसे सामाजिक ढांचे को मजबूत किया जाए, पीड़ितों की बात सुनी जाए, और लोगों को जेंडर के बारे में संवेदनशील बनाया जाए।

नीतियों का उलझन

कानून तो मजबूत हैं, अदालतों में सुनवाई भी जल्दी हो रही है, पर पुलिस और न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार, सामाजिक भेदभाव, और पीड़ितों पर सामाजिक दबाव जैसी बड़ी मुश्किलें हैं।
'नारी 2025' रिपोर्ट में 31 शहरों की 40% महिलाओं ने खुद को असुरक्षित महसूस किया, जो यह दिखाता है कि जमीनी स्तर पर काम ठीक से नहीं हो रहा है।
विपक्षी पार्टियां सरकारों पर आरोप लगाती हैं कि वे महिला सुरक्षा को लेकर सिर्फ वादे करती हैं, पर उन्हें पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखातीं, और अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण देती हैं। सरकारें बजट, रिपोर्ट, और मामलों को जल्दी निपटाने जैसे आंकड़े पेश करती हैं, पर इसका असर आम महिलाओं तक बहुत कम पहुंच पाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ कानून बनाने से काम नहीं चलेगा, बल्कि समाज की सोच बदलने की भी ज़रूरत है। इसके लिए बचपन से ही लोगों को जेंडर के बारे में जागरूक करना होगा, स्कूलों के सिलेबस में बदलाव करना होगा, लोगों को जागरूक करना होगा, और पीड़ितों को मदद करने के लिए एक मजबूत सिस्टम बनाना होगा।

अंत मे

चाहे बिहार हो या कोई और राज्य, महिलाओं की सुरक्षा कानून व्यवस्था और समाज, दोनों के लिए एक इम्तिहान है। क्या हम सिर्फ भाषण, योजनाओं, और पुलिस व्यवस्था को सुधारने से आगे बढ़कर समाज की सोच बदलेंगे, महिलाओं में आत्मविश्वास जगाएंगे, और उन्हें न्याय मिलने की गारंटी देंगे? क्या हमारी अगली पीढ़ी की बेटियां भी उसी डर में जीएंगी, जिसमें आज की महिलाएं जी रही हैं?
भारत का लोकतंत्र तभी सही माना जाएगा, जब हर महिला रात में बिना किसी डर के अपने घर लौट सके। यह सिर्फ कानून और नियमों की बात नहीं है, बल्कि समाज की सोच और इच्छाशक्ति का भी इम्तिहान है। अब समय आ गया है कि हम सब खुद से यह सवाल करें: क्या महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ एक नारा है, या यह एक सच्चाई बन सकती है?




Raviopedia

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