जाति और राजनीति: भारत में सामाजिक विभाजन का सच

भारतीय समाज की जटिल जाति व्यवस्था किस प्रकार राजनीतिक सत्ता में गहराई से निहित है और यह कैसे सामाजिक असमानता और विभाजन को बढ़ावा देती है, इस लेख में विस्तार से समझाया गया है।

परिचय

भारत में जाति और सामाजिक असमानता कोई नई बात नहीं है; ये सदियों से चली आ रही हैं। भले ही हमारा देश लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है, लेकिन जातिवाद अभी भी राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाता है। चुनावों में, पार्टियां जाति के आधार पर वोट मांगती हैं, जिससे समाज में फूट पड़ती है। बिहार से लेकर पूरे देश में, जातिवाद सामाजिक न्याय में सबसे बड़ी बाधा है और राजनीतिक चालों का अहम हिस्सा है। अब सवाल यह है कि क्या जाति की राजनीति समाज को आगे बढ़ने से रोकती है या यह कमजोर लोगों को ताकत देने का एक तरीका है? इस लेख में, हम इस उलझन को समझने की कोशिश करेंगे।

जातिवाद और सामाजिक असमानता: इतिहास क्या कहता है

जाति व्यवस्था भारत की पुरानी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत वेदों और पुराणों से होती है। इस व्यवस्था में, लोगों को उनके जन्म और काम के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बांटा गया था, जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। शुरुआत में, यह व्यवस्था काम को बांटने के लिए अच्छी थी, लेकिन बाद में इसने सामाजिक भेदभाव और छुआछूत को जन्म दिया, जिससे यह एक कठोर और असमान व्यवस्था बन गई।
जब भारत आजाद हुआ, तो संविधान ने जातिगत भेदभाव को गैरकानूनी घोषित कर दिया और सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण जैसी नीतियां लागू कीं। हालांकि, आज भी यह सामाजिक व्यवहार और राजनीतिक व्यवस्था में दिखाई देता है।

राजनीति में जाति का क्या रोल है

जाति भारतीय राजनीति में एक बड़ा रोल निभाती है। राजनीतिक पार्टियां जाति के आधार पर समूह बनाती हैं और वोट जुटाती हैं। बिहार इसका एक अच्छा उदाहरण है, जहां 1947 के बाद भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण जैसे ऊंची जाति के लोगों का दबदबा था, लेकिन धीरे-धीरे दलित और पिछड़े वर्गों ने राजनीतिक जागरूकता बढ़ाकर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई।
चाहे लोकल चुनाव हों या विधानसभा चुनाव, जातिगत समीकरण नतीजों पर असर डालते हैं। दलितों और पिछड़ों को ताकत देने के लिए बने दल जैसे बसपा, जदयू ने जाति आधारित राजनीति में अपनी जगह बनाई है। हालांकि, जाति की राजनीति कभी-कभी समाज में विभाजन, ध्रुवीकरण और यहां तक कि हिंसा को भी जन्म देती है।

बिहार में जाति और राजनीति: एक नजर

बिहार की राजनीति में जाति का बहुत महत्व है। यहां के चुनाव ज्यादातर जातिगत समीकरणों पर टिके होते हैं। भूमिहार, राजपूत, यादव, दलित जैसे जाति समूह सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ा जाति समूहों को राजनीतिक मंच पर लाकर सत्ता में नया बदलाव किया है, जबकि लालू यादव की सामाजिक न्याय की राजनीति ने पिछड़ों और दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया।
हालांकि, इस चक्कर में जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति ने विकास और लोगों की भलाई को पीछे छोड़ दिया है। राजनीति और सत्ता के लिए संघर्ष ने सामाजिक विभाजन को और गहरा कर दिया है।

सामाजिक विभाजन और असमानता: अभी क्या हाल है और आंकड़े क्या कहते हैं

  • संविधान के अनुच्छेद 15 में जाति के आधार पर भेदभाव करने को मना किया गया है, और अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण के जरिए सुरक्षा दी गई है।
  • लेकिन सामाजिक असमानता और भेदभाव के आंकड़े बताते हैं कि आज भी निचली जातियों को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और अन्य अवसरों में पूरी समानता नहीं मिल पाई है। वे मजदूरी, जमीन के अधिकार और सामाजिक सम्मान जैसे क्षेत्रों में कई मुश्किलों का सामना कर रहे हैं।
  • बिहार समेत कई राज्यों में दलितों और पिछड़ों के खिलाफ जाति आधारित हिंसा और अन्याय के मामले सामने आते रहते हैं। वहीं, ऊंची जाति के गरीब लोगों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी आरक्षण नीति लागू की गई है, जिसका विरोध भी हो रहा है।

एक्सपर्ट और लोकल लोगों की राय

  • डॉ. भीमराव अंबेडकर के मुताबिक, जातिवाद भारतीय समाज के लिए जहर है, जिसने सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर दिया है।
  • बिहार के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, राजनीति में जाति हमारे विकास के रास्ते में दीवार बन गई है, लेकिन दूसरी तरफ इसी जाति की राजनीति ने हमारे समुदाय को आवाज और ताकत भी दी है।
  • एक राजनीतिक विश्लेषक का मानना है, जाति की राजनीति को सही दिशा में ले जाना होगा, जहां यह सशक्तिकरण और न्याय का जरिया बने, न कि विभाजन और अराजकता का।

क्या हैं दिक्कतें और नीतियां कितनी सही हैं

जाति आधारित राजनीति और सामाजिक असमानता के बीच संतुलन बनाना मुश्किल है। आरक्षण नीति सही दिशा में एक कदम है, लेकिन इसे लागू करने में गड़बड़ी और राजनीतिक खेल की समस्या बनी हुई है। जातिगत हिंसा, आर्थिक पिछड़ापन, सांस्कृतिक भेदभाव को खत्म करने के लिए ठोस सामाजिक सुधार जरूरी हैं।
सरकारें कोशिश तो कर रही हैं, लेकिन जातिगत जनगणना जैसे कदम विवादित हैं और सामाजिक सद्भाव के लिए जरूरी आंकड़ों की कमी बनी हुई है।

देश और दुनिया में क्या हो रहा है

बिहार के जातिगत समीकरण और सामाजिक असमानता की स्थिति भारत के दूसरे राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश से मिलती-जुलती है, जहां जाति आधारित राजनीति और समाज में गहरा संघर्ष है। दुनिया में जातिगत भेदभाव जैसी कोई व्यवस्था नहीं है, लेकिन नस्लीय और सामाजिक संघर्ष के दूसरे रूप हैं, जो भारत की जाति की राजनीति से अलग हैं।

कुछ सवाल जिन पर बात होनी चाहिए

  1. क्या जाति आधारित राजनीति भारत के लोकतंत्र के लिए जरूरी है या यह समाज में फूट डालती है?
  2. आरक्षण नीति कितनी कारगर है और इसे बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है?
  3. बिहार में जाति आधारित सामाजिक असमानता को कम करने के लिए राजनीतिक नेताओं ने क्या अच्छे काम किए हैं?
  4. समाज सुधार और शिक्षा के जरिए जातिवाद को खत्म करने के सबसे अच्छे तरीके क्या हो सकते हैं?

Raviopedia

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