भारत में पलायन की मजबूरियाँ और प्रवासी मजदूरों की हकीकतें, बिहार की स्थिति और सरकारी नीतियों की खामियाँ
पलायित जीवन की कहानी
भारत में, लाखों लोगों की ज़िंदगी “प्रवास” शब्द के इर्द-गिर्द घूमती है। एक तरफ़, लोग बेहतर ज़िंदगी और नौकरी की तलाश में अपने घर-परिवार छोड़कर शहर आते हैं। उनके दिल में कई सपने होते हैं। पर दूसरी तरफ़, एक कड़वी सच्चाई यह है कि पिछले कुछ सालों में पलायन उनकी मजबूरी बन गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहाँ बुनियादी नौकरी देने वाली योजनाओं की बहुत कमी है, जिसकी वजह से प्रवासी मज़दूर असुरक्षित महसूस करते हैं, उनका शोषण होता है और उन्हें रहने के लिए सही जगह नहीं मिल पाती।
कोविड-19 महामारी के दौरान जब लॉकडाउन लगा, तो यह समस्या खुलकर सबके सामने आ गई। लाखों प्रवासी मज़दूर भूखे-प्यासे, थके-हारे अपने घरों तक पैदल जाने को मजबूर हो गए। यह कहानी आज भी वैसी ही है, और इसमें बिहार जैसे राज्यों की मुश्किलें साफ़ दिखाई देती हैं।
क्यों पलायन बढ़ा
भारत में पलायन की वजह हमेशा से सामाजिक और आर्थिक असमानता रही है। गाँवों में ग़रीबी, बेरोज़गारी और खेती-किसानी में मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं। पारंपरिक खेती में अब ज़्यादा मौके नहीं बचे हैं। वहीं दूसरी तरफ़, तेज़ी से बढ़ते शहरों में बिल्डिंग बनाने, फ़ैक्टरी और सर्विस सेक्टर में नौकरियाँ मिलने की वजह से लोग शहरों की तरफ़ भाग रहे हैं। बिहार, झारखंड जैसे राज्यों से बहुत सारे लोग अपना भविष्य बेहतर बनाने के लिए बड़े शहरों, खेतों और फ़ैक्टरियों में जा रहे हैं। पर अफ़सोस की बात यह है कि तरक्की का फ़ायदा सबको बराबर नहीं मिल रहा है। नौकरी और सामाजिक सुरक्षा की योजनाएँ अक्सर प्रवासी लोगों तक पहुँच ही नहीं पातीं।
बिहार: पलायन की सबसे बड़ी वजह
बिहार में पलायन की समस्या पूरे देश के औसत से तीन गुना ज़्यादा है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, लगभग 2.9 करोड़ बिहारी नौकरी की तलाश में दूसरे राज्यों में रहते हैं। लगभग 50% परिवार पलायन करने के खतरे में हैं। सबसे ज़्यादा पलायन सवर्ण समुदाय के लोग करते हैं (9.98%), उसके बाद ओबीसी, ईबीसी और दलित समुदाय के लोग आते हैं। पलायन के मुख्य कारण हैं गाँवों में बेरोज़गारी और शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। दिल्ली, झारखंड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्य बिहारी मज़दूरों के लिए सबसे पसंदीदा जगह हैं। यह पलायन दिखाता है कि बिहार में आर्थिक तरक्की बहुत कम हुई है और नौकरियाँ पैदा करने पर ध्यान नहीं दिया गया है।
प्रवासी मज़दूरों की परेशानी भरी ज़िंदगी
प्रवासी मज़दूर ज़्यादातर ऐसी जगहों पर काम करते हैं जहाँ कोई नियम-क़ानून नहीं होता। वहाँ उन्हें सामाजिक सुरक्षा, बीमा, रहने की जगह और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ नहीं मिलतीं। ज़्यादातर मज़दूरों को श्रम कानूनों का फ़ायदा नहीं मिल पाता क्योंकि उन्हें सही नौकरी देने वाले लोग नहीं मिलते। इसलिए उनका शोषण होता है, उन्हें कम पैसे मिलते हैं और वे हमेशा असुरक्षित रहते हैं। कोविड-19 के दौरान कम से कम 64% मज़दूरों को पूरी सैलरी नहीं मिली। शहरों में सस्ते घर और साफ़-सफ़ाई की कमी के कारण प्रवासी मज़दूर झुग्गी-झोपड़ी जैसे गंदे इलाकों में रहने को मजबूर होते हैं।
नीतियों में कमियाँ और पुरानी परेशानियाँ
भारत में अंतर-राज्यिक प्रवासी कर्मकार अधिनियम (1979) तो है, पर इसे ठीक से लागू नहीं किया जाता। प्रवासी मज़दूरों के बारे में सही जानकारी और सामाजिक सुरक्षा के लिए डेटाबेस की कमी है। योजनाओं के बारे में लोगों को ज़्यादा पता नहीं है और राज्य सरकारें भी इन्हें लागू करने में देरी करती हैं। 2025 के बजट में प्रधान मंत्री की आवास योजनाओं में प्रवासी मज़दूरों के लिए कोई ख़ास प्रावधान नहीं किया गया है। इसके अलावा, प्रवासी मज़दूरों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता और उन्हें तुरंत मदद नहीं मिलती, जिसकी वजह से उनकी ज़िंदगी अस्थिर बनी रहती है।
ज़मीनी हकीकत
सुपौल, सहरसा, मधुबनी जैसे बिहार के जिलों से आए प्रवासी मज़दूर बताते हैं कि पंजाब में बाढ़ और बेरोज़गारी के कारण अब वे दिल्ली और हरियाणा के शहरों में जा रहे हैं। वे अच्छी नौकरी और सुरक्षा चाहते हैं। जानकारों का मानना है कि गाँवों में नौकरी के अवसर बढ़ाने होंगे और प्रवासी मज़दूरों के लिए मज़बूत सामाजिक सुरक्षा का सिस्टम बनाना होगा। सरकारें प्रवासी मज़दूरों के लिए नीतियाँ तो बनाती हैं, पर उनका असर और दायरा बहुत कम होता है। विपक्षी नेता नौकरी के मुद्दे को चुनाव में उठाते हैं, पर ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं आता।
दुनिया के उदाहरण और सुधार के तरीके
कुछ देशों ने प्रवासी मज़दूरों के लिए बेहतर रजिस्ट्रेशन, रहने की जगह और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था की है। भारत भी राज्यों को साथ लेकर, श्रम बाज़ार में सुधार करके और प्रवासियों के रजिस्ट्रेशन के लिए डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल करके सुधार कर सकता है। केरल में श्रमिकों के लिए सुविधा केंद्र और झारखंड में सुरक्षित प्रवास पहल (SRMI) जैसी योजनाएँ इस दिशा में अच्छे कदम हैं। पर इसके लिए ज़रूरी है कि नीतियों में बड़े बदलाव किए जाएँ, नौकरियाँ पैदा की जाएँ और सिस्टम में सुधार किया जाए।
सवाल और मौके
पलायन और प्रवासी मज़दूरों की हालत भारत के आर्थिक विकास और सामाजिक सुरक्षा के सिस्टम पर सवाल खड़े करते हैं। ज़रूरी है कि नौकरी से जुड़ी नीतियों में सुधार किया जाए ताकि प्रवासी मज़दूरों को सुरक्षा, सम्मान और न्याय मिल सके। बिहार जैसे राज्यों का विकास और गाँवों में नौकरी के मौके बढ़ाना देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। नीति बनाने वालों को सामाजिक सुरक्षा, रहने की जगह, स्वास्थ्य सेवाएँ और कानूनी अधिकार मज़बूत करने होंगे। क्या हम अपने लाखों प्रवासी भाई-बहनों को बेहतर ज़िंदगी और नौकरी का हक दिला पाएँगे? यह सवाल हमारे पूरे सिस्टम के लिए एक बड़ी चुनौती है।
पाठकों के लिए सवाल
- बिहार में पलायन को रोकने के लिए कौन-सी नौकरियां लंबे समय तक लोगों को फायदा पहुंचा सकती हैं?
- प्रवासी मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा देने में क्या दिक्कतें आती हैं?
- क्या जिले और राज्य में प्रवासियों का ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करने से समस्या हल हो सकती है?
- प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा और अधिकारों के लिए सरकार और समाज को क्या करना चाहिए?
