भारतीय लोकतंत्र में गठबंधन सरकारों की चुनौतियां और चुनावी वादों का खोखलापन - बिहार के विशिष्ट संदर्भ में एक गहन विश्लेषण
भारत में राजनीतिक अस्थिरता एक गंभीर मुद्दा है, जिसकी जड़ें हमारे लोकतंत्र में बहुत गहरी हैं। यहां गठबंधन की राजनीति में अक्सर चुनावी वादे हवा में उड़ जाते हैं और जनता की उम्मीदें टूट जाती हैं। बिहार जैसे राज्यों में तो यह स्थिति और भी खराब है, क्योंकि यहां राजनीतिक समीकरण कब बदल जाएं, कोई नहीं जानता।
अगर हम आंकड़ों पर ध्यान दें, तो पता चलता है कि 2019 के चुनावों में भाजपा ने जो वादे किए थे, उनमें से केवल 19% ही पूरे हुए हैं, जबकि 58% वादे पूरी तरह से भुला दिए गए। यह सिर्फ वादों की नाकामी नहीं है, बल्कि गठबंधन की राजनीति में छिपी मुश्किलों को भी दिखाता है।
गठबंधन की राजनीति की शुरुआत 1977 में जनता पार्टी के साथ हुई थी, जब पहली बार कांग्रेस को कड़ी टक्कर मिली। लेकिन यह सरकार सिर्फ 31 महीने ही चल पाई, क्योंकि आपस में ही झगड़े होने लगे थे। इसके बाद 1990 के दशक में वी.पी. सिंह, देवे गौड़ा और गुजराल की सरकारों का भी यही हाल हुआ। ये सभी सरकारें अस्थिरता का शिकार हुईं।
भारत में गठबंधन सरकारों का औसत कार्यकाल सिर्फ 21.7 महीने रहा है। जनता पार्टी से लेकर यूपीए-2 तक, हर गठबंधन सरकार किसी न किसी परेशानी से जूझती रही है। जानकारों का मानना है कि राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा कारण अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों का साथ आना है, जो अक्सर सिद्धांतों से ज्यादा सत्ता के लालच में एक साथ आती हैं।
बेरोजगारी एक और बड़ी समस्या है। 2019 में जब भाजपा सत्ता में आई थी, तब बेरोजगारी दर 5.27% थी, जो 2024 तक बढ़कर 6.57% हो गई है। सरकार ने 2024 तक 20 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था, लेकिन पिछले 10 सालों में सिर्फ 2 करोड़ नौकरियां ही दी जा सकी हैं।
राजनीतिक अस्थिरता का बुरा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। निजी निवेश की दर 2007-08 में 27.5% थी, जो 2020-21 में गिरकर 19.6% रह गई है। विनिर्माण क्षेत्र का योगदान भी GDP में 12.3% से घटकर सिर्फ 4.5% रह गया है, जबकि सरकार ने इसे 25% करने का वादा किया था।
बिहार तो राजनीतिक अस्थिरता का गढ़ बन गया है। यहां नीतीश कुमार को ही देख लीजिए, जिन्होंने 1994 से अब तक 10 बार अपना राजनीतिक पाला बदला है। 1994 में समता पार्टी बनाने से लेकर 2024 में एनडीए में वापस आने तक, उनका यह सफर राजनीतिक अवसरवाद का एक बड़ा उदाहरण है।
जब 2024 में नीतीश कुमार ने फिर से गठबंधन बदला, तो लालू प्रसाद यादव ने उन्हें बिहार की राजनीति का 'पलटू राम' कहा था। यह सिर्फ एक आरोप नहीं था, बल्कि गठबंधन की राजनीति में मौजूद एक बड़ी समस्या की ओर इशारा था।
2005 से 2024 तक बिहार में विकास के नाम पर जो वादे किए गए, उनमें से ज्यादातर अधूरे ही रह गए। शिक्षा के क्षेत्र में देखें तो केवल 70% स्कूलों में लड़कों के लिए और 58% स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय हैं। किसान क्रेडिट कार्ड योजना भी अपने लक्ष्य से पीछे है।
अगर हम गांव के लोगों की बात सुनें, तो पता चलता है कि उनकी क्या परेशानियां हैं। पूर्णिया जिले के किसान रामेश्वर यादव कहते हैं, हर चुनाव में नेता आते हैं, वादे करते हैं। कभी कहते हैं बिजली मुफ्त मिलेगी, कभी कहते हैं पानी की समस्या हल हो जाएगी। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ।
मुजफ्फरपुर की आशा देवी, जो एक स्व-सहायता समूह चलाती हैं, बताती हैं, जीविका योजना से कुछ फायदा जरूर हुआ है, लेकिन जितना वादा किया गया था, उसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिला।
शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग के लोग भी निराश हैं। पटना के एक सरकारी कर्मचारी अजय कुमार सिंह कहते हैं, गठबंधन बदलते रहते हैं, नीतियां बदलती रहती हैं। जो काम आधा-अधूरा शुरू होता है, वो अगली सरकार में रुक जाता है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आम जनता का होता है।
2019 के भाजपा घोषणापत्र का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उसमें किए गए वादे और हकीकत में बहुत अंतर है। कृषि क्षेत्र में 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया गया था, लेकिन कोई खास तरक्की नहीं हुई। स्वास्थ्य सेवा के लिए एम्स को मजबूत बनाने का वादा किया गया, लेकिन देशभर के एम्स अस्पतालों में हजारों पद खाली पड़े हैं।
राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. संजय कुमार के अनुसार, गठबंधन सरकारों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे लंबे समय के लिए कोई नीति नहीं बना पातीं। हर छोटी पार्टी अपना हिस्सा मांगती है, जिससे देश का हित पीछे छूट जाता है।
महाराष्ट्र में 2019-2022 तक चली महाविकास आघाडी सरकार का गिरना भी गठबंधन की राजनीति की अस्थिरता का एक उदाहरण है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का यह गठबंधन आपस में झगड़ों के कारण टूट गया।
यूरोपीय देशों में भी गठबंधन सरकारें होती हैं, लेकिन वहां पार्टियों के बीच कुछ विचारधाराएं मिलती-जुलती होती हैं। जर्मनी में एंजेला मर्केल की सीडीयू-एसपीडी गठबंधन सरकार 16 साल तक चली। भारत में दिक्कत यह है कि यहां अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियां सिर्फ सत्ता के लिए गठबंधन बनाती हैं।
भाजपा के सुधांशु त्रिवेदी का कहना है, कोरोना जैसी महामारी और यूक्रेन युद्ध जैसी मुश्किलों के बावजूद भारत ने 7.4% की विकास दर हासिल की है। कुछ वादे पूरे होने में देर हो रही है, लेकिन सरकार की नीयत साफ है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी का कहना है, भाजपा ने जो वादे किए थे, उनमें से ज्यादातर झूठे निकले हैं। बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की समस्याएं बढ़ी हैं।
जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार का मानना है, भारतीय राजनीति में गठबंधन अब जरूरी हो गया है। दिक्कत यह है कि ये गठबंधन सिद्धांतों के आधार पर नहीं, बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार बनते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र अमित शर्मा कहते हैं, हमें लगता था कि 2014 में बदलाव आएगा, लेकिन स्थिति वही है। नौकरी नहीं मिल रही, महंगाई बढ़ रही है।
बिहार के मुजफ्फरपुर की शिक्षिका प्रिया सिंह बताती हैं, महिलाओं की सुरक्षा के जो वादे किए गए थे, वे सिर्फ कागजों पर ही रह गए हैं। अभी भी लड़कियों के लिए रात में घर से निकलना सुरक्षित नहीं है।
राजनीतिक अस्थिरता और गठबंधन की राजनीति की जटिलताएं भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। बिहार का उदाहरण साफ दिखाता है कि कैसे कुछ लोगों की चाहत और राजनीतिक फायदे के लिए जनता के हितों को ताक पर रख दिया जाता है। नीतीश कुमार का 10 बार गठबंधन बदलना और भाजपा के 58% वादे टूटना सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, बल्कि ये टूटे हुए सपनों और धोखा खाई हुई जनता की कहानियां हैं।
अब समय आ गया है कि हम अपने लोकतंत्र को मजबूत करें, राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाएं और चुनावी सुधारों की ओर ध्यान दें। जब तक राजनीति में सिद्धांतों की जगह सिर्फ फायदे को देखा जाएगा, तब तक गठबंधन की राजनीति देश के विकास में रुकावट बनती रहेगी।
कुछ सवाल जिन पर हमें विचार करना चाहिए:
- क्या भारत में गठबंधन की राजनीति जरूरी है, या किसी एक पार्टी का शासन बेहतर है?
- राजनीतिक दलों को उनके चुनावी वादों के लिए कानूनी रूप से कैसे जिम्मेदार बनाया जा सकता है?
- बिहार जैसे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता को कम करने के लिए क्या बदलाव किए जाने चाहिए?
- क्या आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) भारतीय चुनाव प्रणाली के लिए बेहतर हो सकता है?



