गरीबों के मसीहा और सामाजिक न्याय के पुरोधा : कर्पूरी ठाकुर का जीवन और संघर्ष

जननायक कर्पूरी ठाकुर: एक जीवन, एक विरासत

बिहार की धरती ने कई महान नेताओं को जन्म दिया है, और उनमें से एक थे कर्पूरी ठाकुर। वे न सिर्फ़ दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, बल्कि एक ऐसे समाजवादी नेता भी थे जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर दी। उन्हें लोग प्यार से 'जननायक' कहते थे, क्योंकि उन्होंने हमेशा गरीबों और पिछड़े वर्गों के हक़ में आवाज़ उठाई।

26% का 'कर्पूरी फ़ॉर्मूला': सामाजिक न्याय की एक नई राह

कर्पूरी ठाकुर को सबसे ज़्यादा उनके 'कर्पूरी फ़ॉर्मूला' के लिए जाना जाता है। 1978 में, उन्होंने सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 26% आरक्षण लागू किया। इस फ़ॉर्मूले में उन्होंने पिछड़ी जातियों (OBC), आर्थिक रूप से कमज़ोर OBC, महिलाओं और गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दिया। यह एक ऐसा कदम था जिसने सामाजिक न्याय की राजनीति को नई दिशा दी।

भारत रत्न: एक राष्ट्रीय सम्मान

2024 में, कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न, दिया गया। यह सम्मान उनके सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण और देश के लिए किए गए योगदान को दर्शाता है।

एक साधारण शुरुआत

कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर ज़िले के एक छोटे से गाँव, पितौंझिया (जिसे अब कर्पूरी ग्राम के नाम से जाना जाता है) में हुआ था। वे एक नाई परिवार में पैदा हुए थे, जो पिछड़ा वर्ग की अति-पिछड़ी श्रेणी में आता है। उनके पिता का नाम गोकुल ठाकुर और माता का नाम रमदुलारी देवी था।
कर्पूरी ठाकुर ने अपनी शुरुआती शिक्षा गाँव के ही स्कूल में पूरी की। इसके बाद, उन्होंने दरभंगा के चन्द्रधारी मिथिला कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन, देश की आज़ादी के लिए चल रहे आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी।

स्वतंत्रता सेनानी

1942 में, कर्पूरी ठाकुर भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। इस दौरान उन्हें 26 महीने जेल में भी रहना पड़ा। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने अपना जीवन देश और समाज की सेवा में लगा दिया।

राजनीतिक जीवन की शुरुआत

आज़ादी के बाद, कर्पूरी ठाकुर ने अपने गाँव में शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया। 1952 में, वे समाजवादी पार्टी के टिकट पर ताजपुर से बिहार विधानसभा के सदस्य बने। यहीं से उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई।
कर्पूरी ठाकुर छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहे। उन्होंने कई श्रमिक आंदोलनों का नेतृत्व किया और 1960 में केंद्रीय कर्मचारियों की हड़ताल और 1970 में टेल्को मजदूरों के समर्थन में 28 दिनों तक अनशन भी किया।

मुख्यमंत्री के रूप में

कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। पहली बार वे दिसंबर 1970 से जून 1971 तक और दूसरी बार दिसंबर 1977 से अप्रैल 1979 तक मुख्यमंत्री रहे। उनके दोनों कार्यकाल गैर-कांग्रेसी समाजवादी नेतृत्व के लिए एक मिसाल थे।

शिक्षा और भाषा के लिए काम

शिक्षा मंत्री के रूप में, कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक (10वीं कक्षा) में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। उनका मानना था कि इससे गरीब और पिछड़े वर्ग के छात्रों को फ़ायदा होगा। हालांकि, इस फ़ैसले की आलोचना भी हुई, लेकिन कर्पूरी ठाकुर अपने फ़ैसले पर अडिग रहे।
उन्होंने हिंदी को बढ़ावा दिया और उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा देने की पहल की। इससे उन्होंने भाषाई समावेशन का संदेश दिया।

सामाजिक सुधार

मुख्यमंत्री रहते हुए, कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में शराबबंदी लागू की। उनका मानना था कि शराब समाज के लिए एक अभिशाप है और इसे बंद करना ज़रूरी है। उन्होंने पंचायत राज को मजबूत करने, स्कूल फीस माफ़ी और बेरोज़गार इंजीनियरों के लिए अनुबंधों में प्राथमिकता जैसी कई कल्याणकारी योजनाएं भी शुरू कीं।

एक मार्गदर्शक

कर्पूरी ठाकुर ने लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे कई नेताओं को राजनीति में मार्गदर्शन दिया। उन्हें इन नेताओं के राजनीतिक गुरु के रूप में देखा जाता है।

विवाद और चुनौतियाँ

  • कर्पूरी ठाकुर के फ़ैसलों का विरोध भी हुआ। आरक्षण लागू होने के बाद, ऊँची जातियों के लोगों ने इसका विरोध किया। उनकी सरकार पर कई तरह के दबाव भी आए, जिसके कारण 1979 में उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा।
  • अंग्रेज़ी अनिवार्यता हटाने के फ़ैसले की भी आलोचना हुई। लोगों का मानना था कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ेगा। लेकिन, कर्पूरी ठाकुर के समर्थकों का कहना था कि यह फ़ैसला अवसर-समानता के लिए ज़रूरी था।

समाज और देश पर प्रभाव

'कर्पूरी फ़ॉर्मूला' ने बिहार में पिछड़े और अति-पिछड़े वर्गों की प्रशासनिक भागीदारी बढ़ाई। इसने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों और सामाजिक प्रतिनिधित्व की बहस को भी आगे बढ़ाया।
आज भी, कर्पूरी ठाकुर की पहलें जाति-आधारित सर्वे, प्रतिनिधित्व और कल्याणकारी नीतियों की बहसों में एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु बनी हुई हैं।

विरासत

कर्पूरी ठाकुर आज भी लोगों के दिलों में 'जननायक' के रूप में जिंदा हैं। उनके सम्मान में, समस्तीपुर के पितौंझिया गाँव का नाम बदलकर कर्पूरी ग्राम कर दिया गया है। बिहार में कई संस्थानों और स्थलों का नाम उनकी स्मृति में रखा गया है।
उनका सरल जीवन, ईमानदार राजनीति और बराबरी के प्रति प्रतिबद्धता हमें हमेशा प्रेरणा देती रहेगी। 2024 में भारत रत्न से सम्मानित किया जाना उनकी नैतिक और राजनीतिक विरासत को और भी मजबूत करता है।

निष्कर्ष

कर्पूरी ठाकुर एक ऐसे नेता थे जिन्होंने सत्ता को सामाजिक न्याय के लिए इस्तेमाल किया। उन्होंने नीति, नैतिकता और जनकल्याण को एक साथ जोड़ा। उन्होंने अपनी राजनीतिक जोखिम पर भी हमेशा गरीबों और पिछड़े वर्गों की आवाज़ उठाई। उनका जीवन हमें बताता है कि लोकतंत्र की साख उन लोगों के हाथों में सुरक्षित है जो तात्कालिक लाभ से ऊपर उठकर समाज में समानता लाने के लिए लड़ते हैं।

मुख्य तथ्य

  • जन्म: 24 जनवरी 1924, पितौंझिया/कर्पूरी ग्राम, समस्तीपुर, बिहार
  • समुदाय: नाई (EBC)
  • निधन: 17 फ़रवरी 1988
  • शिक्षा: स्थानीय विद्यालय; चन्द्रधारी मिथिला कॉलेज, दरभंगा
  • पेशा: शिक्षक
  • प्रमुख पद: बिहार के मुख्यमंत्री (1970–71, 1977–79); उपमुख्यमंत्री (1967)
  • नीतियाँ: 26% 'कर्पूरी फ़ॉर्मूला' आरक्षण; अंग्रेज़ी अनिवार्यता समाप्त; शराबबंदी
  • उपाधि: जननायक
  • सम्मान: भारत रत्न (2024, मरणोपरांत)
  • प्रेरणास्रोत: लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार

विचारणीय प्रश्न

  • क्या 'कर्पूरी फ़ॉर्मूला' जैसे आरक्षण मॉडल को आज के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में नए मापदंडों के साथ फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है?
  • अंग्रेज़ी अनिवार्यता हटाने और उर्दू को मान्यता देने जैसे फ़ैसलों से समावेश और गुणवत्ता की बहस में किसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ?
  • क्या 2024 में दिया गया भारत रत्न सामाजिक न्याय के लिए नए जन-समर्थन और नीतिगत ऊर्जा का काम कर सकता है?
यह कहानी कर्पूरी ठाकुर के जीवन और कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी देती है और उनकी विरासत को जीवंत रखती है।

Raviopedia

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